मनुष्य अधिक वातवाला होता है--उसमें वातकी
प्रधानता होती है। जिसके असमयमें ही बाल
सफेद हो जायं, जो क्रोधी, महाबुद्धिमान् ओर
युद्धको पसंद करनेवाला हो, जिसे सपनेमें
प्रकाशमान वस्तुएँ अधिक दिखायी देती हों,
उसे पित्तप्रधान प्रकृतिका मनुष्य समझना
चाहिये। जिसकी मैत्री, उत्साह और अङ्ग सभी
स्थिर हों, जो धन आदिसे सम्पन्न हो तथा
जिसे स्वप्नमें जल एवं शेत पदार्थोका अधिक
दर्शन होता हो, उस मनुष्ये कफकी प्रधानता
है। प्राणियोंके शरीरमें रस जीवन देनेवाला
होता है, रक्त लेपनका कार्य करता है तथा मांस
मेहन एवं केहन क्रियाका प्रयोजक है। हड्डी
और मज्जाका काम है शरीरको धारण करना।
वीर्यकी वृद्धि शरीरको पूर्ण बनानेवाली होती है ।
ओज शुक्र एवं वीर्यका उत्पादक है; वही जीवकी
स्थिति और प्राणकी रक्षा करनेवाला है। ओज
शुक्रकी अपेक्षा भी अधिक सार वस्तु है। वह
हृदयके समीप रहता है और उसका रंग कुछ-
कुछ पीला होता है । दोनों जंघे (ये समस्त चैरके
उपलक्षण हैं), दोनों भुजां, उदर और मस्तक-
ये छः अङ्ग बताये गये है । त्वचाके छः स्तर है ।
एक तो वही है, जो बाहर दिखायी देती है।
दूसरी वह है, जो रक्त धारण करती है । तीसरी
किलास (धातुविशेष) ओर चौथी कुण्ड
(धातुविशेष)- को धारण करनेवाली है । पौँचवीं
त्वचा इन्द्रियोंका स्थान है और छठी प्रार्णोको
धारण करनेवाली मानी गयी है। कला भी सात
प्रकारकी है-पहली मांस धारण करनेवाली,
दूसरी रक्तधारिणी, तीसरी जिगर एवं प्लीहाको
आश्रय देनेवाली, चौथी मेदा और अस्थि धारण
करनेवाली, पाँचवीं मजा, श्लेष्मा और पुरीषको
धारण करनेवाली, जो पक्काशयमें स्थित रहती है,
छठी पित्त धारण करनेवाली और सातवीं शुक्र
धारण करनेवाली है। वह शुक्राशयमें स्थित
रहती है ॥ ३७ -४५॥
इस प्रकार आदि आग्तेव महापुराणमें "आत्यन्तिक प्रलय त्था यर्भकी उत्पत्तिका वर्णन” नामक
तीन सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हआ + ३६९ #
तीन सौ सत्तरवाँ अध्याय
शरीरके अवयव
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठजी ! कान, त्वचा, | मन, बुद्धि, आत्मा (महत्तत्त्व), अव्यक्त (मूल
नेत्र, जिह्वा ओर नासिका-ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।| प्रकृति) -ये चौबीस तत्त्व है । इन सबसे परे है-
आकाश सभी भूतोंमें व्यापक है । शब्द, स्पर्श, | पुरुष । वह इनसे संयुक्त भी रहता है और पृथक्
रूप, रस और गन्ध-ये क्रमशः आकाश आदि | भी; जैसे मछली ओर जल-ये दोनों एक साथ
पाँच भूतोकि गुण है । गुदा, उपस्थ (लिङ्ग या | संयुक्त भी रहते हैं और पृथक् भी। रजोगुण,
योनि), हाथ, पैर और वाणी -ये " कर्मेन्द्रिय ' | तमोगुण और सत्त्वगुण -ये अव्यक्तेके आश्रित हैं।
कहे गये है । मलत्याग, विषयजनित आनन्दका | अन्तःकरणकी उपाधिसे युक्त पुरुषं " जीव ' कहलाता
अनुभव, ग्रहण, चलन तथा वार्तालाप -ये क्रमशः | है, वही निरुपाधिक स्वरूपसे ' परब्रह्म' कहा गया
उपर्युक्त इन्द्रियोंके कार्य हँ । पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच | है, जो सबका कारण है। जो मनुष्य इस परम
ज्ञानेन्द्रिय, पाँच इन्द्रियोके विषय, पाँच महाभूत, | पुरुषको जान लेता है, वह परमपदको प्राप्त होता है।