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तीन सौ अड़सठवाँ अध्याय

नित्य, नैमित्तिक और प्राकृत प्रलयका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं--मुनिवर! “प्रलय” चार

प्रकारका होता है--नित्य, नैमित्तिक, प्राकृत और

आत्यन्तिक। जगत्‌में उत्पन्न हुए प्राणियोंकी जो

सदा ही मृत्यु होती रहती है, उसका नाम “नित्य

प्रलय” है। एक हजार चतुर्युग बीतनेपर जब

ब्रह्माजीका दिन समाप्त होता है, उस समय जो

सृष्टिका लय होता है, वह * ब्राह्म लय" के नामसे

प्रसिद्ध है। इसीको 'नैमित्तिक प्रलय भी कहते

हैं। पाँचों भूतोंका प्रकृतिमें लीन होना "प्राकृत

प्रलय" कहलाता है तथा ज्ञान हो जानेपर जब

आत्मा परमात्माके स्वरूपमें स्थित होता है, उस

अवस्थाका नाम “आत्यन्तिक प्रलय" है। कल्पके

अन्ते जो नैमित्तिक प्रलय होता है, इसके

स्वरूपका मैं आपसे वर्णन करता हूँ। जब चारों

युग एक हजार बार व्यतीत हो जाते हैं, उस

समय यह भूमण्डल प्रायः क्षीण हो जाता है, तब

सौ वर्षौतक यहाँ बड़ी भयंकर अनावृष्टि होती

है। उससे भूतलके सम्पूर्णं जीव-जन्तुओंका विनाश

हो जाता है। तदनन्तर जगत्के स्वामी भगवान्‌

विष्णु सूर्यकी सात किरणोंमें स्थित होकर पृथ्वी,

पाताल और समुद्र आदिका सारा जल पी जाते

हैं। इससे सर्वत्र जल सूख जाता है। तत्पश्चात्‌

भगवान्‌की इच्छासे जलका आहार करके पुष्ट हुई

वे ही सातों किरणें सात सूर्यके रूपमें प्रकट होती

हैं। वे सातों सूर्य पातालसहित समस्त त्रिलोकीको

जलाने लगते हैं।' उस समय यह पृथ्वी कछुएकी

पीठके समान दिखायी देती है। फिर भगवान्‌

शेषके श्वासोसे “कालाग्नि रुदर 'का प्रादुर्भाव होता

है ओर वे नीचेके समस्त पातालोको भस्म कर

डालते है । पातालके पश्चात्‌ भगवान्‌ विष्णु भूलोकको,

फिर भुवर्लोकको तथा सबके अन्मे स्वर्गलोकको

भी दग्ध कर देते हैं। उस समय समस्त त्रिभुवन

जलते हुए भाद-सा प्रतीत होता है। तदनन्तर

भुवर्लोक ओर स्वर्ग --इन दो लोकोकि निवासी

अधिक तापसे संतप्त होकर ' महर्लोक" मे चले

जाते हैं तथा महर्लोकसे जनलोकमें जाकर स्थित

होते है । शेषरूपी भगवान्‌ विष्णुके मुखोच्छवाससे

प्रकर हुए कालाग्निरुद्र जब सम्पूर्णं जगत्को जला

डालते हैं, तब आकाशमें नाना प्रकारके रूपवाले

बादल उमड़ आति हैं, उनके साथ बिजलीकी

गड़गड़ाहट भी होती है। वे बादल लगातार सौ

वर्षोतक वर्षा करके बढ़ी हुई आगको शान्त कर

देते हैं। जब सप्तर्षियोंके स्थानतक पानी पहुँच

जाता है, तब विष्णुके मुखसे निकली हुई साँससे

सौ वर्षोंतक प्रचण्ड वायु चलती रहती है, जो उन

बादलोंको नष्ट कर डालती है। फिर ब्रह्मरूपधारी

भगवान्‌ उस वायुको पीकर एकार्णवके जलमें

शयन करते हैं। उस समय सिद्ध और महर्षिगण

जलमें स्थित होकर भगवान्‌की स्तुति करते हैं

और भगवान्‌ मधुसूदन अपने 'वासुदेव' संज्ञक

आत्माका चिन्तन करते हुए, अपनी ही दिव्य

मायामयी योगनिद्राका आश्रय ले एक कल्पतक

सोते रहते हैं। तदनन्तर जागनेपर वे ब्रह्माके रूपमें

स्थित होकर पुनः जगत्‌की सृष्टि करते हैं। इस

प्रकार जब ब्रह्माजीके दो परार्द्धकी आयु समास

हो जाती है, तब यह सारा स्थूल प्रपञ्च प्रकृतिमें

लीन हो जाता है॥ १--१५॥

इकाई-दहाईके क्रमसे एकके बाद दसमुने

स्थान नियत करके यदि गुणा करते चले जायँ तो

अठारहवें स्थानतक पहुँचनेपर जो संख्या बनती

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