* अध्याय ३६७ +
और अभ्याश-ये समीपके अर्थमें आते हैं।
अत्यन्त निकटको नेदिष्ठ कहते हैं। बहुत दूरके
अर्थे दविष्ठ शब्दका प्रयोग होता दै। वृत्त,
निस्तल और वर्तुल-ये गोलाकारके वाचक
हैं। उच्च, प्रांशु, उन्नत और उदग्र -ये ऊँचाके
अर्थमें आते है । ध्रुव, नित्य ओर सनातन -ये
नित्य अर्थके बोधक हैं । अविद्ध, कुटिल, भुग्न,
वेष्टित और वक्र-ये टेढ़ेका बोध करानेवाले
है । चञ्चल और तरल--ये चपलके अर्थे आते
है । कठोर, जरठ और दृढ़--ये समानार्थक शब्द
हैं। प्रत्यग्र, अभिनव, नव्य, नवीन, नूतन और
नव-ये नयेके अर्थमें आते हैं। एकतान और
अनन्यवृत्ति-ये एकाग्रचित्तवाले पुरुषके बोधक
हैं। उच्चण्ड और अविलम्बित-ये फुर्तीके
वाचक हैं। उच्चावच और नैकभेद-ये अनेक
प्रकारके अर्थमें आते हैं। सम्बाध ओर कलित--
ये संकीर्ण एवं गहनके बोधक हैं। तिमित,
स्तिमित और क्लिन्न-ये आर्द्र या भीगे हुएके
अर्थे आते हैं। अभियोग और अभिग्रह-ये
दूसरेपर किये हुए दोषारोपणके नाम हैं। स्फाति
शब्द वृद्धिके और प्रथा शब्द ख्यातिके अर्थमें
अर्थमें आते हैं। विध्न, अन्तराय और प्रत्यूह--
ये विघ्नका बोध करानेवाले हैं। आस्या, आसना
और स्थिति-ये बैठनेकी क्रियाके बोधक हैं।
संनिधि और संनिकर्ष--ये समीप रहनेके अर्थमें
प्रयुक्त होते हैं। किलेमें प्रवेश करनेकी क्रियाकों
संक्रम और दुर्गसंचर कहते हैं। उपलम्भ और
अनुभव--ये अनुभूतिके नाम हैं। प्रत्यादेश और
निराकृति--ये दूसरेके मतका खण्डन करनेके
अर्थमें आते हैं। परिरम्भ, परिष्वङ्ग, संश्लेष और
उपगृहन -ये आलिङ्गनके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं।
पक्ष* और हेतु आदिके द्वारा निश्चित होनेवाले
ज्ञानका नाम अनुमा या अनुमान है। बिना
हथियारकी लड़ाई तथा भयभीत होनेपर किये हुए
शब्दका नाम डिम्ब, भ्रमर (या डमर) तथा
विप्लव है। शब्दके द्वारा जो परोक्ष अर्थका ज्ञान
होता है, उसे शाब्दज्ञान कहते हैं। समानता
देखकर जो उसके तुल्यवस्तुका बोध होता है,
उसका नाम उपमान है । जहाँ कोई कार्य देखकर
कारणका निश्चय किया जाय, अर्थात् अमुक
कारणके बिना यह कार्य नहीं हौ सकता-
इस प्रकार विचार करके जो दूसरी वस्तु
आता है। समाहार और समुच्चय -ये समृहके | अर्थात् कारणका ज्ञान प्राप्त किया जाय,
वाचक रै । अपहार ओर अपचय-ये हासका
बोध करानेवाले ह । विहार और परिक्रम-ये
घूमनेके अर्थमें आते है । प्रत्याहार ओर उपादान-
ये इन्द्रियॉंको विषयोंसे हटानेके अर्थमें प्रयुक्त
होते हैं। निहरि तथा अभ्यवकर्षण--ये शरीरमें
धसे हुए शस्त्रादिको युक्तिपूर्वक निकालनेके
उसे अर्थापत्ति कहते है । प्रतियोगीका ग्रहण
न होनेपर जो ऐसा कहा जाता है कि “अमुक
वस्तु पृथ्वीपर नहीं है, उसका नाम अभाव
है । इस प्रकार मनुष्योंका ज्ञान बदानेके लिये मैंने
नाम और लिङ्ग-स्वरूप श्रीहरिका वर्णन किया
है॥ ११--२८॥
इस प्रकार आदि आण्तेव महाएुराणमें 'कोशगत सामान्य नामलिङ्गोका कथन” नामक
तीन सौ सड़सठवाँ अध्याय पूरा हआ ॥ ३६७॥
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* जहाँ साध्यका संदेह हो अर्थात् जहाँ किसी वस्तुको सिद्ध करतेकी चेश कौ जा रहो हो - उसको “पक्ष ' कहते हैं तथा साध्यको
सिद्ध कजेके लिये जो युक्ति दी जाती है, उसे 'हेतु' कहते हैं। जैसे "पर्वतो वड़िमात्धूमवत्वात्' (पर्वतपर आग है; क्योंकि वहाँ धुआ
उठता है)। यहाँ वह_ि साध्य, पर्वत पक्ष और धूप हेतु है।