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होने), सम्भावना, क्रोध, स्वीकार तथा निन्दा

अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'अलम्‌' शब्द भूषण,

पर्याप्ति, सामर्थ्यं तथा निवारणका वाचक है।

"हम्‌" वितर्क और प्रश्न अर्थमें तथा 'समया'

निकट और मध्यके अर्थमें आता है। “पुनर्‌'

अव्यय प्रथमको छोड़कर द्वितीय, तृतीय आदि

जितनी बार कोई कार्य हो, उन सबके लिये

प्रयुक्त होता है। साथ ही भेद-अर्थमें भी इसका

प्रयोग देखा जाता है। “निर्‌' निश्चय और निषेधके

अर्थमें आता है । 'पुरा' शब्द बहुत पहलेकी बीती

हुई तथा निकट भविष्यमें आनेवाली बातको

व्यक्त करनेके लिये प्रयुक्त होता है। "उररी",

"ऊरी", 'ऊररी'--ये तीन अव्यय विस्तार और

अङ्गीकारके अर्थमें आते हैं। 'स्वर्‌' अव्यय स्वर्ग

और परलोकका वाचक है। 'किल'का प्रयोग

वार्ता और सम्भावनाके अर्थमें आता है। मना

करने, वाक्यको सजाने तथा जिज्ञासाके अवसरपर

'खलु'का प्रयोग होता है। 'अभितस्‌” अव्यय

समीप, दोनों ओर, शीघ्र, सम्पूर्ण तथा सम्मुख

अर्थका बोध कराता है। “प्रादुस' शब्द

नाम अव्ययके अर्थमें तथा व्यक्त या प्रकट होनेमें

प्रयुक्त होता है। "मिथस्‌" शब्द परस्पर तथा

एकान्तका वाचक है। "तिरस्‌" शब्द अन्तर्धान

होने तथा तिरछे चलनेके अर्थमें आता है।

"हा" पद विषाद्‌, शोक और पीड़ाको व्यक्त

करनेवाला है। * अहह" अथवा " अहहा अद्भुत

एवं खेदके अर्थमें तथा हेतु और निश्चय अर्थे

प्रयुक्त होता है ॥ १--१८॥

चिराय, चिररात्राय और चिरस्य इत्यादि*

अव्यय चिरकालके बोधक हैँ । मुहः, पुनः-पुनः,

शश्वत्‌, अभीक्ष्ण ओर असकृत्‌-ये सभी अव्यय

समान अर्थके वाचक हैं-इन सबका बारंबारके

अर्थे प्रयोग होता है। राक्‌, इटिति, अञ्जसा,

अह्वाय, सपदि, द्राक्‌ और मड्क्षु-ये शीघ्रताके

अर्थमें आते है । बलवत्‌ और सुष्ु-ये दोनों शब्द्‌

अतिशय तथा शोभन अर्थके वाचक है । किमुत,

किम्‌ ओर किम्भूत-ये विकल्पका बोध करनेवाले

हैं। तु, हि, च, स्म, ह, वै-ये पादपूर्विके लिये

प्रयुक्त होते टै । अतिका प्रयोग पूजनके अर्थम भी

आता है । दिवा शब्द दिनका वाचक है तथा दोषा

ओर नक्तम्‌ शब्द रात्रिके अर्थे आते है । साचि

और तिरस्‌ पद तिर्यक्‌ (तिरछे) अर्थमे प्रयुक्त होते

हैं। प्याट्‌, पाट्‌, अङ्ग, हे, टै, भोः -ये सभी शब्द

सम्बोधनके अर्थम आते हैँ । समया, निकषा और

हिरुकू-ये तीनों अव्यय समीप अर्के वाचक

है। सहसा अतर्कित अर्थमें आता है। (अर्थात्‌

जिसके बारेमे कोई सम्भावना न हो, ऐसी वस्तु

जब एकाएक सामने उपस्थित होती है तो उसे

सहसा उपस्थित हुई कहते है । ऐसे ही स्थ्लोमिं

सहसाका प्रयोग होता है।) पुरः, पुरतः ओर

अग्रतः -ये सामनेके अर्थमें आते हैं। स्वाहा पद

देवताओंको हविष्य अर्पण करनेके अर्थमें आता

है। श्रौषट्‌" ओर " वौषट्‌'का भी यही अर्थं है।

"वषट्‌" शब्द इन्द्रका ओर स्वधा शब्द पितरोंका

भाग अर्पण करनेके लिये प्रयुक्त होता है।

किंचित्‌, ईषत्‌ ओर मनाक्‌-ये अल्प अर्थके

वाचक हैं। प्रेत्य और अमुत्र-ये दोनों जन्मान्तरके

अर्थमें आते हँ । यथा और तथा समताके एवं अहो

और हो-ये आश्चर्यके बोधक है । तृष्णीम्‌ और

तृष्णीकम्‌ पद मौन अर्थे, सद्यः ओर सपदि शब्द

तत्काल अर्थम, दिष्ट्या और समुपजोषम्‌-ये

आनन्द अर्थम तथा अन्तरा शब्द भीतरके अर्थमें

* आदि शब्दसे * चिरम्‌", ' चिरेण ', 'चिरात्‌' तथा * भिरे "इन पदोंका ग्रहण होता है ।

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