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मस्‌'- ये उत्तमपुरुष कहे गये हैं॥ १-५६ ॥

"त, आताम्‌, झ'--ये आत्मनेपदके

प्रथमपुरुषसम्बन्धी प्रत्यय हैं। ' धास्‌, आथाम्‌,

ध्वम्‌'-- ये मध्यमपुरुष हैं। "इ, वहि, महिङ्‌'-

ये उत्तमपुरुष है । आत्मनेपदके नौ प्रत्यय "तङ्‌"

कहलाते हैं और दोनों पदोकि प्रत्यय ^ तिङ्‌" शब्दसे

समझे जाते है । क्रियावाची 'भू', वा आदि धातु

कहे गये ह । भू, एध्‌, पच्‌, नन्द्‌, ध्वंस्‌, सरस्‌,

पद्‌, अद्‌, शीङ्‌, क्रीड, हु, हा, धा, दिव्‌,

स्वप्‌, नह, षूञ्‌, तुद्‌, मृश्‌, मुच, रुध्‌, भुज,

त्यज, तन, मन और कृ-- ये सब धातु शप्‌ आदि

विकरण होनेपर क्रियार्थबोधक होते है । ' क्रीड,

वृङ्‌, ग्रह, चुर, पा, नी तथा अचि'-ये तथा

उपर्युक्त धातु 'नायक' (प्रधान) है । इन्हीकि समान

अन्य धातुओकि भी रूप होते हैं। 'भू' धातुसे

क्रमशः "तिङ्‌" प्रत्यय होनेपर * भवति, भवतः,

भवन्ति" इत्यादि रूप होते हैं। इनका वाक्ये

प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये-' स भवति।

तौ भवतः। ते भवन्ति । त्वं भवसि। युवां भवथः ।

यूयं भवथ । अहं भवामि। आवां भवावः। वयं

भवापः।' ये ' भू" धातुके "लट्‌" लकारमें परस्मैपदी

रूप हैं। 'भू' धातुका अर्थं है--'होना'। 'एथ्‌'

धातु "वृद्धि" अर्थमें प्रयुक्त होता है। यह आत्मनेपदी

है। वाक्यमें इसका प्रयोग इस प्रकार हो सकता

है त्वं हि मेधया एधसे।' (निश्चय ही तुम बुद्धिसे

बढ़ते हो।) 'एथेये, एधघ्वे' ये दोनों मध्यमपुरुषके

क्रमशः द्विवचनान्‍्त और बहुवचनान्त रूप हैं।

"एषे, एधावहे, एधामहे '-- ये उत्तमपुरुषमें क्रमश:

एकवचन, द्विवचन और बहुवचनान्त रूप हैं।

वाक्यमें प्रयोग-' अहं भिया एथे।' (मैं बुद्धिसे

बढ़ता हूँ।) ' आवां मेधया एधावहे ।' (हम दोनों

मेधासे बढ़ते हैं।) “जय हरेर्भक्त्या एधामहे ।'

(हम श्रीहरिकौ भक्तिसे बढ़ते है ।) "पाक ' अर्थे

"पच्‌" धातुका प्रयोग होता है । उसके पचति"

इत्यादि रूप पूर्ववत्‌ (*भू' धातुके समान) होते

हैं। "भू" धातुसे भावमें और 'अनु+भू' धातुसे

कर्ममें "यक्‌ ' प्रत्यय होनेपर क्रमश: 'भूयते' और

*अनुभूयते' रूप होते हैं। भावमें प्रत्यय होनेपर

क्रिया केवल एकवचनान्त ही होती है और सभी

पुरुषोंमें कर्ता तृतीयान्त होनेके कारण एक ही

क्रिया सबके लिये प्रयुक्त होती है। यथा--' त्वया

मया अन्यैश्च भूयते।' जहाँ कर्ममें प्रत्यय होता है,

वहाँ कर्म उक्त होनेके कारण उसमें प्रथमा

विभक्ति होती है और तदनुसार सभी पुरुषों तथा

सभी वचने क्रियाके रूप प्रयोगमें लाये जाते

हैं। यथा-'असौ अनुभूयते। तौ अनुभूयेते। ते

धातु है। इसका 'लट्‌' लकारमें प्रथमपुरुषके | अनुभूयन्ते। त्वम्‌ अनुभूयसे। युवाम्‌ अनुभूयेथे।

एकवचनमें 'एधते' रूप बनता है। वाक्ये प्रयोग --

"एधते कुलम्‌।' (कुलकी वृद्धि होती है)--इस

प्रकार होता है। 'लद्‌' लकारमें "एध्‌" धातुके शेष

रूप इस प्रकार होते ह द्रे एथेते'। (दो बढ़ते

हैं)। यह द्विवचनका रूप है। बहुवचनमें 'एथधन्ते'

रूप होता है। इस प्रकार प्रथमपुरुषके एकवचन,

द्विवचन और बहुवचनान्त रूप बताये गये। अब

मध्यम और उत्तम पुरुषोंके रूप प्रस्तुत किये जाते

हैं-'एथसे' यह मध्यमपुरुषका एकवचनान्त रूप

यूयम्‌ अनुभूयध्वे। अहम्‌ अनुभूये। आवाम्‌

अनुभूयावहे। वयम्‌ अनुभूयामहे ' ॥ ६--१३ ॥

अर्थविशेषको लेकर धातुसे "णिच्‌" "सन्‌",

"यङ््‌' तथा "यङ्लुक्‌ ' होते हैं। इन्हें क्रमसे

"ण्यन्त" ' सत्रन्त', 'यडन्त' और ' यङ्लुगन्त ' कहते

हैँ । जहाँ किसी क्रियाके कर्ताका कोई प्रेरक या

प्रयोजक कर्ता होता है, वहाँ प्रयोजक कर्ताकी

"हेतु" संज्ञा होती है और प्रयोज्य कर्ता 'कर्म' बन

जाता है। प्रयोजकके व्यापार प्रेषण आदि बाच्य

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