शब्दको सिद्धि होती है। "शिविर" कहते हैं--
सेनाकी छावनीको। अग्निपुराणके अनुसार गुप्त
निवासस्थानको 'शिविर' कहते हैं॥ १--५॥
*अवू' धातुसे सितनिगमिपसि ।' (७२) इत्यादि
सूत्रके अनुसार " तुङ््' प्रत्यय होनेपर वकारके
स्थानमें "ऊद्" होकर गुण होनेसे 'ओतु' शब्दकी
सिद्धि होती है। "ओतु" कहते हैं--बिलावको।
अभिधानमात्रसे उणादि प्रत्यय होते हैं। "कृ"
धातुसे “न प्रत्यय करनेपर गुण होता है और
नकारका णकारादेश हो जानेपर “कर्ण' शब्दकी
सिद्धि होती है। “कर्ण 'का अर्थ है--कान अथवा
कन्यावस्थामें कुन्तीसे उत्पन्न सूर्यपुत्र कर्ण। “वस्'
धातुसे "तुन् ' प्रत्यय, अगार अर्थमें उसका 'णित्व'
होकर वृद्धि होनेसे "वास्तु" शब्द बनता है।
"वास्तु" का अर्थं है-गृहभूमि। “जीव” शब्दसे
"आतृकन्" प्रत्यय और वृद्धि होकर “जैवातृक'
शब्दकी सिद्धि होती है। “जैवातृक' का अर्थ
है-- चन्द्रमा । "अनः शकटं बहति।'-- इस लौकिक
विग्रहमें वह" धातुसे *क्रिप् प्रत्यय, * अनस् 'के
सकारका डकार आदेश तथा " वह ' के वकारका
सम्प्रसारण होनेपर “अनडुह! शब्द बनता है,
उसके सुबन्ते अनड्वान्, अनड्वाहौ इत्यादि
रूप होते है । ' जीव्" धातुसे * जीवेरातुः '। (८२) -
इस सूत्रके अनुसार ' आतु ' प्रत्यय करनेपर * जीवातु '
शब्दकी सिद्धि होती है। "जीवातु" नाम है--
संजीवन औषधका। प्रापणार्थक "वह्" धातुसे
“बहिश्रिश्रुयुद्रग्लाहात्वरिभ्यो नित्।' (५०१) -
इस सूत्रके अनुसार “नित्” प्रत्यय करनेपर
विभक्तिकार्यके पश्चात् 'वह्नि: - इस रूपकी सिद्धि
होती है। (इसी प्रकार श्रेणिः, श्रोणिः, योनिः,
द्रोणिः, ग्लानिः, हानिः, तूर्णि: म्लानिः-
इत्यादि पदोंकी सिद्धि होती है।) "ह' धातुसे
“इनच् ' प्रत्यय होनेपर और अनुबन्धभूत चकारका
लोप कर देनेपर “ह+इन', गुण तथा विभक्ति-
कार्य-हरिणः- इस रूपकी सिद्धि होती है।
'श्यास्त्याहञ्विभ्य इनच्।' (२१३) -इस
ओणादिक सूत्रसे यहाँ “ इनच्" प्रत्यय हुआ है।
"हरिण" कहते हँ - मृगको । यह शब्द कामी तथा
पात्रविशेषके लिये भी प्रयुक्त होता है । " अण्डन्
कृसृभूवृअ:।' (१३४) --इस सुत्रके अनुसार "कृ"
आदि धातुओंसे " अण्डन् प्रत्यय करनेपर क्रमशः-
करण्डः, सरण्डः, भरण्डः, वरण्डः-ये रूप
सिद्ध होते हैं। "करण्ड" शब्द भाजन और
भाण्डका वाचक दै । मेदिनीकोशके अनुसार यह
शहदके छत्तेके लिये भी प्रयुक्त होता है । * सरण्ड'
शब्द चौपायेका वाचक है । कुछ विद्वान् 'सरण्ड'
का अर्थ पक्षी मानते हैं। "बाहुलकात् तृ
प्लवनतरणयोः ।' इस धातुसे भी 'अण्डन्' प्रत्यय
होकर " तरण्ड" पदकी सिद्धि होती है। * तरण्ड"
शब्द काठके बेड़ेके लिये प्रयुक्त होता है। कुछ
लोग मछली फैंसानेके लिये बनायी गयी बंसीके
डोरेको भी "तरण्ड" कहते हैं। “वरण्ड' शब्द
सामवेदके लिये प्रयुक्त होता है। कुछ लोग
“*साम' और “यजुष्'-दो वेदोके लिये इसका
प्रयोग मानते हैं। कुछ लोगोंके मतमें “बरण्ड'
शब्द मुखसम्बन्धी रोगका वाचक है।
"स्फायितञ्चिवञ्चि० (१७८)।' इत्यादि सूत्रसे
वृद्धर्थक 'स्फायि' धातुसे 'रक्' प्रत्यय होनेपर
"स्फार" पदकी सिद्धि होती है। 'स्फार' शब्दका
अर्थ होता है--प्रभूत अर्थात् अधिक। ' मेदिनीकोश 'के
अनुसार 'स्फार' शब्द विकट अर्थे आता है और
करका या करवा आदि पात्रके भरते समय पानीमें
जो बुलबुले उठते हैं, उनका वाचक भी 'स्फार'
शब्द है। 'शुसिच्तिमीनां दीर्घश्ष (१९३)।' इस
सूत्रसे 'क्रन्' प्रत्यय और पूर्व हस्वस्वरके स्थानमें
दीर्घ कर देनेपर क्रमश: शूर:, सीरं, चीरं, मीर:--