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इस प्रकार समझनी चाहिये--'जयति रोगान् इति
जायुः'। “मि” धातुसे वही (उण्) प्रत्यय
करनेपर "मायुः '- यह पद् सिद्ध होता है
"मायुः 'का अर्थं है--'पित्त'। इसकी व्युत्पत्ति इस
प्रकार है -' मिनोति" प्रक्षिपति देहे ऊष्माणम्
इति मायुः।' इसी प्रकार ‹स्वदते- रोचते इति
स्वादुः ।', ' साध्नोति परकार्यमिति साधुः ।' इत्यादि
प्रयोग सिद्ध होते हैं। गोमायुः, आयुः - इत्यादि
प्रयोग भी इसी तरह सिद्ध होते हैँ । * गोमायु'का
अर्थ है-गीदड़ तथा ' आयुः ' शब्द आयुर्वेदके
लिये भी प्रयुक्त होता है । "उणादयो बहुलम्।'--
(३।३।१) इस सूत्रके अनुसार "ठण्" आदि
बाहुल्येन होते है । कहीं होते हैं, कहीं नहीं होते ।
"आयुः ', * स्वादुः ' तथा "हेतु" आदि शब्दे भी
उणादिसिद्ध हँ । "किंशारू" नाम है-धान्यके
शूकका। "किं शृणातीति किंशारुः '। यहाँ 'किं'
पूर्वक ' श" धातुसे "जुण्' होता है । "ज्" तथा
"ण्" अनुबन्ध हैं। किंशर^उ। वृद्धि होकर "किंशारुः"
बनता है। "कृकवाकुः" का अर्थं है--मुर्गा या
मोर । " कृकेनं गलेन वक्तीति कृकवाकुः ।' “कृके
वचः कश्च'--इस उणादिसूत्रसे "जुण्' प्रत्यय
होनेपर कृक+वचू+जुणू--इस अवस्थामें अनुबन्धलोप,
चकारकों ककार और “अत उपथाया:।' (पा०
सूृ० ७।२।११६) से वृद्धि होती है। 'भरति
बिभर्ति वा भरुः" 'भू' धातु से “उ' प्रत्यय, गुण;
विभक्तिकार्य-भरुः। इसका अर्थ है-भर्त्ता
(स्वामी) । मरु:--जलहीन देश। मृ+उ गुणादेश,
विभक्तिकार्यन्मरु:। शी+उ5शयु:। इसका अर्थ
है--सोया पड़ा रहनेवाला अजगर। त्सर+उनत्सरु:-
अर्थात् खड़गकी मूठ। 'स्वर्यन्ते प्राणा अनेन' इस
लौकिक विग्रहम "उ ' प्रत्यय होता है। फिर गुण
होकर "स्वरुः" पद बनता है । ' स्वरु" का अर्थ
है--वज़। त्रप्+उ^त्रपु। *त्रपु" नाम है शीशेका।
फल्ग्+उ=फल्गुः - सारहीन । अभिकाडृक्षार्थक ' गृध्"
धातुसे 'सुसुधागृधिभ्य: क्रन् (१९२)--इस सूत्रके
अनुसार “क्रन्' प्रत्यय होनेपर गृध्+क्रनू, ककार-
नकारकी इल्संज्ञा गृधः" अर्थात् गीध पक्षी।
मदि*किरच्= मन्दिरम्। तिमि+किरचू«तिमिरम्।
मन्दिर! का अर्थ गृह तथा 'तिमिर' का अर्थ
अन्धकार है । “सलिकल्यनिमहिभडिभण्डिशण्डि
पिण्डितुण्डिकुकिभूभ्य इलच्।' (५७) -इस उणादि
सूत्रके अनुसार गत्यर्थक *षल्" धातुसे "इलच्
प्रत्यय करनेपर "सलिलम्" यह रूप बनता है ।
" सलति गच्छति निप्नमिति सलिलम्'-- यह इसकी
व्युत्पत्ति है । ' सलिल ' शब्द वारि-जलका वाचक
है। (इसी प्रकार उक्त सूत्रसे ही कलिलम्,
अनिलः, महिला -- पृपोदरादित्वात् महेला - इत्यादि
शब्द निष्पन्न होते है ।) भण्डि+इलच्- भण्डिलम्।
इसका अर्थं है- कल्याण । ' भण्डिल ' शब्द दूतके
अर्थम भी आता है। जानार्थक “विद्” धातुसे
ओणादिक ' क्रसु ' प्रत्यय होनेपर विद्+क्रसु-इस
अवस्थामें 'लशक्रतद्धिते।' (१।३।८) से
ककारकी इत्संज्ञा तथा ' उपदेशेऽजनुनासिक इत्।'
(१।३।२) से उकारकी इत्संज्ञा होती है; तत्पश्चात्
विभक्तिकार्यं करनेपर ' विद्वान् '--यह रूप बनता
है। “विद्वान्'का अर्थं है-बुध या पण्डित।
“ शेरतेऽस्मिन् राजवलानि इति शिविरम्।'-- इस
व्युत्पत्तिके अनुसार ' शीङ्" धातुसे किरच् ' प्रत्यय,
“शी से "वुक्" का आगम तथा 'शी' के दीर्घ
ईकारके स्थानम हस्व आदेश होनेपर “शिविर '
१. गृध्^उ~ गृधु" रूप होता है । 'गृधु: को अर्थ है ~ कामदेव ।
*विद्' थातुसे ' शतृ" प्रत्यय करनेपर ' चिदे: शतुर्यसु:।' (७। १। ३६) - इस सूत्रके अनुसार ' विद्" धातुसे परे विद्यमान ' शत् "के
स्थानमे "वसु" आदेश हो जाता है । यह आदेशे वैकल्पिक होता है। अत: ' विदन् और 'विद्वान्'--ये दोनों रूप विशुद्ध कृदन्त हैं।
विदान्" का अर्प ग्रुध है और कृदन्त 'चिद्वात्' का अर्थ जानता हुआ है ।