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" अक्षतर' और “'पटु' आदि शब्दोंसे उक्त प्रत्यय
होनेपर ' पटुतरः" आदि रूप बनते हैं। तिडन्तसे
"तरप्" प्रत्यय करके अन्तम "आम्" करनेषर
“पचतितराम् ' रूप बनता है । ' तमप्" और ' आम्
प्रत्यय होनेपर 'अटतितमाम्' इत्यादि उदाहरण
उपलब्ध होते है ॥ १४-१५॥
किंचित् न्यूनता तथा असमाप्तिका भाव
प्रकट करनेके लिये ' सुबन्त" और ' तिङन्त"
शब्दोंसे "कल्पप्", " देश्य' तथा ' देशीयर् ' प्रत्यय
होते है । ' ईषदसमाप्तौ कल्पव्देश्यदेशीयरः ' (५।
३। ६७)--इस सूत्रके अनुसार "मृदु" शब्दसे
“कल्पप्' प्रत्यय होनेपर ' मृदुकल्पः ' प्रयोग बनता
है। इसका अर्थ हुआ--'कुछ कम मृदु या
कोमल'। "ईषदूनः इन्द्र:--इन्द्रकल्प:। ईषदूनः
अर्क:--अर्ककल्प:।' इत्यादि उदाहरण इसी तरह
जाननेयोग्य हैं। ' ईंघदून: राजा '--इस अर्थे 'राजन्'
शब्दसे 'देशीवर्' प्रत्यय करनेपर "राजदेशीवः '
तथा 'देश्य' प्रत्यय करनेपर 'राजदेश्य: '--ये रूप
बनते हैं। इसी तरह 'पटु' शब्दसे “जातीय' प्रत्यय
करनेपर "पटुजातीयः ' पद बनता है। इसका अर्थ
है-पटुप्रकार-पटुके प्रकारका। * थल्" प्रत्यय
प्रकारमात्रका बोधक है, किंतु "जातीयर् प्रत्यय
'प्रकारबान्' का बोध कराता है । [इसका विधायक
पा० सू० है प्रकारवचने जातीयर्।' ५। ३।६९]
"प्रमाणे दयसजूदश्चञमात्रचः।' (५। २। ३७)--
इस सूत्रके अनुसार "जल ' आदिका प्रमाण बतानेके
लिये ' सुबन्त" शब्दोंसे "यसच् ' " दध्नच्" तथा
"मात्रच् ' प्रत्यय होते हैं। इस नियमसे "मात्रच् '
प्रत्यय होनेपर "जानुमात्रम्" पद बनता है । इसका
अर्थं है -घुटनेतक (पानी है) । “ऊरु शब्दसे
"द्रवसच्' प्रत्यय करनेपर "ऊरुद्वयसम्" तथा
"दध्नच्' प्रत्यय करनेपर "ऊरुदश्रम्'-ये प्रयोग
बनते है ॥ १६-१७॥
"संख्याया अवयवे तयप्।' (पाऽसू० ५।२
४२)--इस सूत्रके अनुसार ' पञ्चाक्यवा यस्य तत्"
(पाँच अवयव हैं, जिसके वह) इस अर्थमें ' पञ्चन्!
शब्दस "तयप्" प्रत्यय करनेपर * पञ्चतयम्'- वद
रूप बनता है। 'द्वारं रक्षति, द्वारे नियुक्तो वा
दौवारिकः '--जो द्वारकी रक्षा करता है, अथवा
द्वारपर रक्षाके लिये नियुक्त है, वह "दौवारिक"
है । 'रक्षति।' (पा० सू० ४।४।३३) अथवा ' तत्र
नियुक्तः।' (पा०्सू० ४। ४। ६९) सूत्रसे यहाँ
“ठक् ' प्रत्यय हुआ है। 'ठ' के स्थानमें 'इक'
आदेश हो जाता है तथा 'द्वारादीनां च।' (७। ३।
४)--इस सूत्रसे 'ऐच्' का आगम होता है। फिर
विभक्तिकार्य होनेपर 'दौवारिक:' इस पदकी सिद्धि
होती है। इस प्रकार 'ठक्' प्रत्यय होनेपर 'दौवारिक'
शब्दकी सिद्धि बतायी गयी है। यहाँतक 'तद्धितकी
सामान्यवृत्ति' कही गयी। अब “अव्ययसंज्ञक
तद्धित' का निरूपण किया जाता है ॥ १८॥
"यस्मादिति यतः', ' तस्मादिति ततः '- यहाँ
" पञ्चम्यास्तसिल् ।' (५। ३। ७) सूत्रके अनुसार
"तसिल् ' प्रत्यय होता है । इकार ओर लकारकी
इत्संज्ञा होकर उनका लोप हो जाता दै । ' तसिल्'
प्रत्यय विभक्तिसंज्ञक होनेके कारण ^ त्यदादीनामः।'
(७।२। १०२) के नियमानुसार अकारन्तादेश हो
जाता है । अतः, "यत्" की जगह “य' और तत्
की जगह " त" होनेसे 'यतः ', ततः '- ये रूप बनते
है । “तसिलादयः प्राक् पाशपः।' (* तसिल्" आदिसे
लेकर ' पाशप्" प्रत्ययके पूर्वतक जितने प्रत्यय
विहित या अभिहित हुए हैं, उन सबकी
"अव्ययसंज्ञा" होती है)--इस परिगणनाके अनुसार
"यतः ', " ततः ' आदि शब्द ' अव्यय ' माने गये है ।
"तसिल्" आदिमे 'त्रल' प्रत्यय भी आता है।
इसका विधायक पाणिनिसूत्र है -' सपतम्यास््रल्।'
(५। ३। १०) । "यस्मिन्निति यत्र ', ' तस्मिन्निति
तत्र '-इस लौकिकं विग्रहे त्रल् प्रत्यय होनेपर
"यस्मिन् त्र", "तस्मिन् त्र।' इस अवस्थामें