कुर्वादिभ्यो ण्यः।' (४। १। १५१) के अनुसार
अपत्यार्थे 'कुरु' शब्दसे “ण्य ' प्रत्यय होनेपर
आदिवृद्धिपूर्वक गुण-वान्तादेश होकर "कौरव्यः '
इत्यादि प्रयोग बनते है । "शरीरावयवाद् यत्।'
(५। १। ६) के नियमानुसार शरीरावयववाचक
शब्दोंसे “यत् प्रत्यय होनेपर ' मूर्धन्य ' तथा “मुख्य
आदि शब्द सिद्ध होते हैं। ' सुगन्धिः '-' शोभनो
गन्धो यस्य सः '- इस लौकिक विग्रहे बहुब्रीहि
समास करनेके पश्चात् ' गन्धस्येदुत्पूतिसुसुरभिभ्यः ।'
(५।४। १३५)--इस सूत्रके अनुसार अन्तमें 'इ'
हो जानेसे “सुगन्धिः '-इस शब्दरूपकौ सिद्धि
होती है ॥ १२॥
"तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच्।' (५।
२। ३६)- तारकादिगणसे "इतच् ' प्रत्यय होता है,
इस निवमके अनुसार ' तारकाः संजाता अस्य'
(तारे उग आये हैं, इसके) इस अर्थे " तारका"
शब्दसे " इतच् ' प्रत्यय होनेपर " तारकितं नभः '
इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं। ' कुण्डपिव ऊधो
यस्याः सा' (कुण्डके समान है थन जिसका,
वह )-इस लौकिक विग्रहे बहुत्रीहि समास
होनेपर "ऊधसोऽनङः।' (५। ४। १३१)-इस | “इष्ठन्
सूत्रके अनुसार ऊधोऽन्त बहुब्रीहिसे स्तीलिङ्गपें
"अनङ्" होता है। इस प्रकार "अनङ्" होनेपर
" बहु्रीहिरूधसो डीष्।' (४।१। २५)--इस सूत्रसे
“ङीष्' प्रत्यय होता है। तत्पश्चात् अन्यान्य
परक्रियात्मक कार्य होनेके बाद ' कुण्डोध्नी ' पदकी
सिद्धि होती है। ' पुष्पं धनुर्यस्य स पुष्पधन्वा '
( कामदेवः ), “सुष्ठ धनुर्यस्य स सुधन्वा" (श्रेष्ठ
धनुष धारण करनेवाला योद्धा )--इन दोनों बहुब्रीहि-
पदोंमें ' धनुषश्च ।' (५। ४। १३२)-इस सूत्रसे
"अनङः' होता है । तत्पश्चात् सुबादि कार्य होनेपर
"पुष्यधन्वा' तथा "सुधन्वा" ये दोनों पद सिद्ध
होते ह ॥ १३॥
"वित्तेन वित्त: इति वित्तचुञ्चुः ।'- जो धन-
वैभवके द्वारा प्रसिद्ध हो, वह " वित्तचुञ्चुः' रहै ।
शब्दशास्त्रमे जिसकी प्रसिद्धि है, वह 'शब्दचुझ्ल'
कहलाता है। ये दोनों शब्द *चुञचप्' प्रत्यय होनेपर
निष्पन्न होते हैं। इसी अर्थमें '“चणप्' प्रत्यय भी
! | होता है। यथा--'केशचण:'। जो अपने केशि
विदित है, वह 'केशचण:' कहा गया है। (इन
प्रत्ययोंका विधान “तेन वित्तश्चुञ्चुप्चणपौ ।' (५।
२। २६) --इस सूत्रके अनुसार होता है। “पदु'
शब्दसे “प्रशस्त' अर्थमें "रूप" प्रत्यय होनेपर
*पदुरूप: ' पद बनता है । प्रशस्तः पटु:-पटरूप:।'
जो प्रशस्त पटु है, वह " पटुरूप' कहा जाता है।
यह “रूप प्रत्यय " सुबन्त" और “ तिडन्त -- दोनों
प्रकारके शब्दोंसे होता है । ' तिडन्त" शब्दसे इस
प्रकार होता है-- प्रशस्तं पचति इति " पचतिरूपम्।'
"पचतिरूपम्" का अर्थं है- अच्छी तरह पकाता
है। अतिशयार्थ-द्योतनके लिये “तमप्”, “इष्ठन्,
तरप्" ओर 'ईंयसुन्'--ये प्रत्यय होते है । इनमेंसे
“तरप्” और “ईयसुन्'-ये दोनों दोमेंसे एककी
्ष्ठताका प्रतिपादन करते हैं और “तमप्' तथा
“ये दोनों बहुतोंमेंसे एककी श्रेष्ठता बताते
हैं। पाणिनिने इसके लिये दो सूत्रोंका उल्लेख
किया है--'अतिशायने तमबिष्ठनौ ।' (५। ३।
५५) तथा 'द्विवचनविभम्योत्तरपदे तरबीयसुनौ ।'
(५। ३। ५७) | इसके सिवा, यदि किसी द्रव्यका
प्रकर्षं न बताना हो तो “तरप्' 'तमप्' प्रत्ययोंसे परे
"आम्" हो जाता है। यह 'आम्' 'किम्' शब्द,
*एदन्त' शब्द, तिडन्त पद तथा अव्यय पदसे भी
होते हैं। इन सब नियमोंके अनुसार "अयम्
अनयोरतिशयेन पटुः ।' (यह इन दोनोंमें अधिक
पटु है)--इस अर्थको बतानेके लिये 'पदु' शब्दसे
"ईयसुन् ' प्रत्यय करनेपर विभक्तिकार्यपूर्वक 'पटीयान्'
रूप होता है। 'अक्ष' शब्दसे 'तरप्' प्रत्यय होनेपर