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धान्यानां भवने क्षेत्रे खञ्‌।

२। १)-इस सूत्रके अनुसार धान्योंकी उत्पत्तिके

आधारभूत क्षेत्रके अर्थम षष्ठयन्त समर्थ धान्य-

वाचक शब्दसे ' खञ्‌ ' प्रत्यय होता है । (स्कन्दने

कात्यायनको जिसका उपदेश किया, उस कौमार-

व्याकरणे भी यह नियम देखा जाता है ।) इसके

अनुसार प्रियंगोर्भवनं क्षेत्र॑ प्रैयंगवीनम्‌--प्रियंगु

( कंगनी )की उत्पत्तिके आधारभूत क्षेत्रका बोध

करानेके लिये ' खञ्‌" प्रत्यय होनेपर (*ख' के

स्थानपर "ईन्‌" आदेश हो जानेपर) 'वरैयंगवीनम्‌"-

यह पद बनता है। इसका अर्थ है प्रियंगु

८ कंगनी ) की उपज देनेवाला खेत'। इसी तरह

मूग, कोदो आदिकी उत्पत्तिके उपयुक्त खेतको

“मौद्रीन' तथा " कौद्रवीण ' कहते है । यहाँ “ मुद्ग"

शब्दसे "खञ्‌" होनेपर ' मौद्रीन ' शब्द और " कोद्रव '

शब्दसे "खञ्‌ ' होनेपर “कौद्रवीण ' शब्द्की सिद्धि

होती है । ' विदेहस्यापत्यम्‌' ( विदेहका पुत्र)--इस

अर्थम "विदेह" शब्दसे *अण्‌" प्रत्यय होनेपर

"वैदेहः" पदकी सिद्धि होती है । (इन सबमें आदि

स्वरकी वृद्धि होती है।) अकारान्त शब्दसे

"अपत्य" अर्थम “अण्‌' का बाधक “इ' प्रत्यय

होता है। आदि स्वरकौ वृद्धि तथा अन्तिम

स्वर्का लोप। "दक्षस्यापत्यं -- दाश्विः, दशरथस्यापत्यं

दाशरथिः ।' इत्यादि पद बनते हैं। नडादिभ्यः

फक्‌ ।' (४। १। ९९)--इस सूत्रके नियमानुसार

" नड'-आदि शब्दोंसे “फक्‌' प्रत्यय होता है।

“फ' के स्थानम “आयन' होता है। अतएव

"नडस्य गोत्रापत्यं नाडायनः, चरस्य गोत्रापत्यं

चारायणः ।' इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैँ । (कित्‌'

होनेके कारण आदि वृद्धि हो जाती है।) इसी

तरह “अश्वस्य गोत्रापत्यम्‌, आश्वायनः ' होता

है। इसमें ' अश्वादिभ्यः फञ्‌।' (४।१।११०)-

इस सूत्रके अनुसार “फञ्‌ प्रत्यय होता है।

पा०सू० ५। | ("गोत्रे कुञ्जादिभ्यः फञ्‌।' ४। १। ९८) यह

भी फज्‌-विधायक सूत्र है । ब्रध्न, शङ्ख, शकट

आदि शब्द कुञ्ादिके अन्तर्गत हैं, अतएव

शाङ्खायनः', "शाकटायनः" आदि प्रयोग सिद्ध

होते है ।) "गर्गादिभ्यो यज्‌' (४। १। १०५)-

इस सूत्रके अनुसार गर्ग, वत्स आदि शब्दोंसे

गोत्रापत्यार्थक "यञ्‌" प्रत्यय होनेपर ' गार्ग्यः ',

"वात्स्यः ' इत्यादि रूप बनते है । स्त्रीभ्यो ठक्‌ ।'

(४। १। १२०) के नियमानुसार स्त्रीप्रत्ययान्त

शब्दोंसे " अपत्य ' अर्थमें “ढक्‌ * प्रत्यय होता है।

फिर उसके स्थानमें 'एय' होता है । जैसे विनतायाः

पुत्रः" (विनताका पुत्र) “बैनतेय' कहलाता है ।

"सुमित्रा" आदि शब्द बाह्वादिगणमें पठित हैं,

अतः उनसे अपत्यार्थे "इञ्‌ ' प्रत्यय होता है ।

अतएव "सौमित्रेयः' न होकर "सौमित्रिः रूप

वनता है। ' चटका' शब्दसे ' चटकाया ऐरक्‌।'

(४। १। १२८) -इस सूत्रके विधानानुसार 'ऐरक्‌

प्रत्यय होनेपर "चटकाया अपत्यं पुमान्‌" ( चटकाका

नर पुत्र) “चाटकैर' कहलाता है । ' गोधा ' शब्दसे

"दक्‌ ' का विधान है । "गोधाया दृक्‌ ।' (४। १।

१२९) अतः गोधाका अपत्य " गोधेर' कहलाता

है । ' आरगुदीचाम्‌।' (४।१।१३०) के नियमानुसार

"आरक्‌ ' प्रत्यय होनेपर "गौधारः ' रूप बनता है ।

ऐसा बैयाकरणोंने बताया रै ॥ ९--११॥

*क्षत्र' शब्दसे 'घ' प्रत्यय होनेपर 'घ' के

स्थानमें "इय" होनेके कारण 'क्षत्रिय' शब्द सिद्ध

होता है। ' क्षत्राद्‌ घ:।' (४। १। १३८)--'जाति'

बोधक “घ प्रत्यय होनेपर ही 'क्षत्रिय:' रूप

बनता है। अपत्यार्थमें तो 'इज्‌' होकर ' क्षत्रस्थापत्यं

पुमान्‌ क्षात्रि:--यही रूप बनेगा। “कुलातू खः।'

(४। १। १३९) के अनुसार "कुल" शब्दसे

"ख ' प्रत्यय और “ख ' के स्थानें “ईन ' आदेश

होनेपर ' कुलीनः '- इस पदकी सिद्धि होती है ।

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