'विना' के योगमें ' श्री *शब्दसे द्वितीया, “विना | काना है।'--यहाँ कुत्सितअङ्गवाचक "अक्षि"
श्रिया'--यहाँ "विना कै योगमें ' श्री 'शब्दसे तृतीया | | है। उससे तृतीया विभक्ति हुई। अर्थेन निवसेद्
और “चिना श्रिय: '--यहाँ 'विना'के योगे ' श्री '
शब्दसे पञ्चमी विभक्ति हुई है। कर्मप्रवचनीयसंज्ञक
शब्दोंके योगमें द्वितीया विभक्ति होती है-जैसे
"अन्वर्जुनं योद्धारः - योद्धा अर्जुनके संनिकट प्रदेशमे
हैं।'-..यहाँ ' अनु' कर्मप्रवचनीय -संञक है-इसके
योगमें " अर्जुन" शब्दे द्वितीया विभक्ति हुई । इसी
प्रकार अभितः, परितः आदिके योगमें भी द्वितीया
होती है। यथा “अभितो ग्राममीरितम्।'--गाँवके
सब तरफ कह दिया है ।' यहाँ ' अभितः" शब्दके
योगमें "ग्राम ' शब्दमें द्वितीया विभक्ति हुई दै । नमः,
स्वाहा, स्वधा, स्वस्ति एवं वषट् आदि शब्दोंके
योगे चतुर्थी विभक्ति होती है-जैसे “नमो'
देवाय- (देवको नमस्कार है) -- यहाँ ' नमः" के
योगमें "देव ' शब्दे चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है ।
इसी प्रकार “ते स्वस्ति'- तुम्हार कल्याण हो--
यहाँ ' स्वस्ति" के योगमें “युष्पद' शब्दसे चतुर्थी
विभक्ति हुई (“ युष्मद्" शब्दको चतुर्थकि एकवचने
वैकल्पिक 'ते' आदेश हुआ है) तुमुग्रत्ययार्थक
भाववाची शब्दसे चतुर्थी विभक्ति होती है- जैसे
"पाकाय याति" और ' पक्तये याति'-- पकानेके
लिये जाता है।' यहाँ 'पाक' और " पक्ति" शब्द
^तुमर्थक भाववाची ' है । इन दोनोंसे चतुर्थी विभक्ति
हुई। “सहार्थ शब्दके योगमें हेतु-अर्थं और
कुत्सित अद्भवाचकमें तृतीया विभक्ति होती है ।
सहार्थयोगमें तृतीया विशेषणवाचकसे होती है ।
जैसे “ पिताऽगात् सह पुत्रेण "-- पिता पुत्रके साथ
चले गये।' यहाँ 'सह' शब्दके योगमें विशेषणवाचक
"पुत्र" शब्दसे तृतीया विभक्ति हुई । इसी प्रकार
"गदया हरिः ' (भगवान् हरि गदाके सहित रहते
है)-यहाँ “सहार्थक' शब्दके न रहनेपर भी
सहार्थं है, इसलिये विशेषणवाचक " गदा' शब्दसे
तृतीया विभक्ति हुई। "अक्ष्णा काणः-- ओंखसे
भृत्यः ।'--' भृत्य धनके कारणसे रहता है।'--यहाँ
हेतु-अर्थ है ' धन ' तद्वाचक ' अर्थं ' शब्दसे तृतीया
विभक्ति हुई । कालवाचक और भाव अर्थमें
सप्तमी विभक्ति होती है । अर्थात् जिसकी क्रियासे
अन्य क्रिया लक्षित होती है, तद्वाचक शब्दसे
सप्तमौ विभक्ति होती है। जैसे--' विष्णौ नते
भवेन्मुक्तिः '- भगवान् विष्णुको नमस्कार करनेपर
मुक्ति मिलती है ।- यहाँ श्रीविष्णुकी नमस्कार
क्रियासे मुक्ति-भवनरूपा क्रिया लक्षित होती है,
अतः "विष्णु" शब्दसे सप्तमी विभक्ति हुई । इसी
प्रकार " वसन्ते स गतो हरिम्'-- वह वसन्त ऋतुमें
हरिके पास गया।'--यहाँ “ वसन्त' कालवाचक
है, उससे सप्तमी हुई । (स्वामी, ईश, पति, साक्षी,
सूत ओर दायाद आदि शब्दोंके योगमें षष्ठौ एवं
सप्तमी विभक्तियाँ होती हैं-- )जैसे-'नृणां स्वामी,
नृषु स्वामी ' - मनुष्योका स्वामी,-- यहाँ ^ स्वामी '
शब्दके योगमें ' नृ" शब्दसे षष्ठौ एवं सप्तमी
विभक्तियाँ हुईं। इसी प्रकार ' नृणामीशः'-
नरोकि ईश'- यँ “ ईश' शब्दके योगमें “नृ'
शब्दसे, तथा "सतां पतिः'- सज्जर्मोका पति--
यहाँ "सत्" शब्दसे षष्ठी विभक्ति हई । ऐसे हौ
हु नृणां साक्षी, नृषु साक्षी - मनुष्योका साक्षी “~
यहाँ 'नृ” शब्दसे षष्ठी एवं सप्तमी विभक्तियाँ हुईं।
"गोषु नाथो गवां पतिः गौओंका स्वामी है, यहाँ
"नाथ" और “पति' शब्दोकि योगमें "गो" शब्दसे
षष्ठी ओर सप्तमी विभक्तियाँ हुईं। "गोषु सूतो गवां
सूत:--गौओंमें उत्पन्न है'--यहाँ " सूत' शब्दके
योगमें गो" शब्दसे षष्ठी एवं सप्तमी विभक्ति हुई।
"इह राज्ञां दायादकोऽस्तु।'-- यहौँ राजाओंका दायाद
हो। यहाँ 'दायाद' शब्दके योगे 'राजन्' शब्दमें
षष्ठी विभक्ति हुई है। हेतुवाचकसे “हेतु” शब्दके
प्रयोग होनेपर षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे