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शब्दका रूप है। 'यत्‌' शब्दके ये दो यत्‌-यद्‌

(प्र० ट्वि०-ए०) हैं। 'तत्‌' शब्दके “ततू-तद

(प्र०, द्वि०-ए०), “कर्म' शब्दके कर्माणि

(प्र० द्वि०-ब०), “इदम्‌' शब्दके इदम्‌ (प्र०,

द्वि०-ए०), इमे (प्र० द्वि०-द्वि०), इमानि (प्र०,

द्वि०-ब० )--ये रूप हैं। ईदृक्‌ -इंद्ग्‌ ( प्र०, द्वि०-

ए०)-यह 'ईदृश्‌' शब्दका रूप है। अदः

(प्र०, द्वि०-ए०), अमुनी (प्र०, द्वि०-द्वि०),

अमूनि (प्र०, द्वि०-ब०)। अमुना (तृ-ए०),

अमीषु (स०-ब०)--' अदस्‌" शब्दके ये रूप भी

पूर्ववत्‌ सिद्ध होते हैं। ' युष्मद्‌" ओर "अस्मद्‌!

शब्दके रूप इस प्रकार होते हैं-अहम्‌

(प्र०-ए०), आवाम्‌ (प्र०-द्वि०), वयम्‌ (प्र०-

ब०)। माम्‌ (द्वि०-ए०), आवाम्‌ (द्वि०-द्वि०),

अस्मान्‌ (द्वि०-ब०) । मया (तृ०--०० ), आवाभ्याम्‌

(तृ०, च०-द्वि० ), अस्माभिः (तृ०--ब० ) । मह्यम्‌

(च०-ए०), अस्मभ्यम्‌ (च०-ब०)। मत्‌

(प१०-ए०), आकाभ्याम्‌ (प०-द्वि०), अस्मत्‌

(प०-ब०) । मम (घ०-ए०), आवयोः (ष०,

स०-द्विं०), अस्माकम्‌ (ष०-ब०)। अस्मासु

(स०-बर)-ये " अस्मद्‌" शब्दके रूप है । त्वम्‌

(प्र०-ए०), युवाम्‌ (प्र०-ट्वि०) यूयम्‌ (प्र०-

बर) । त्वाम्‌ (द्वि०-ए०), युवाम्‌ (द्वि०-द्वि०),

युष्मान्‌ (द्वि° -ब०) । त्वया (तृ०-ए०), युष्माभिः

(तृ०-ब०)। तुभ्यम्‌ (च०-ए०), युवाभ्याम्‌

(तृ०, च०-द्विं०), युष्मभ्यम्‌ ( च०-ब०) । त्वत्‌

(प०-ए९) युवाभ्याम्‌ (प०-द्वि०) युष्पत्‌ (प०-

ब०)। तव (ष०-ए०), युवयोः (ष०, स॒०-

द्वि), युष्माकम्‌ (ष०-ब० ) । स्वयि (स०-ए० ),

युष्मासु (स०-ब०)-ये ' युष्मद्‌" शब्दके रूप

है । यहाँ अजन्त" और ' हलन्त शब्दोंका दिग्दर्शन-

मात्र कराया गया है ॥ १--९॥

इस प्रकार आदि आग्तेव महापुराणमे “नपुंसकलिङ्ग शब्दोके सिद्ध रूपोका वर्णन” त्रामक

तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ # २५३ ॥

[क

तीन सौ चौवनवाँ अध्याय

कारकप्रकरण

भगवान्‌ स्कन्द कहते हैं-- अब मैं विभक्त्यर्थोंसे

युक्त “कारक'का वर्णन करूँगा*। "ग्रामोऽस्ति"

(ग्राम है)--यहाँ प्रातिपदिकार्थमात्रमें प्रथमा विभक्ति

हुई है। विभक्त्यर्थे प्रथमा होनेका विधान पहले

कहा जा चुका है । ' हे महार्क -इस वाक्यम जो

"महार्क' शब्द है, उसमें, सम्बोधनमें प्रथमा

विभक्ति हुई है। सम्बोधने प्रथमाका विधान

पहले आ चुका है । ' इह नौमि विष्णुं श्रिया सह ।'

(मैं यहाँ लक्ष्मीसहित भगवान्‌ विष्णुका स्तयन

संज्ञा हुई है । और ' द्वितीया कर्मणि स्मृता '--इस

पूर्वकथित निवमके अनुसार कर्मे द्वितीया हुई

है । "श्रिया सह '- यहाँ “श्री” शब्दे “ सह ' का

योग होनेसे तृतीया हुई है। सहार्थक और

सदृशार्थक शब्दोंका योग होनेपर तृतीया विभक्ति

होती है, यह सर्वसम्मत मत है । क्रियामें जिसको

स्वतन्त्रता विवक्षित हो, वह “ कर्ता" या ' स्वतन्त्र

कर्ता" कहलाता है । जो उसका प्रयोजक हो, वह

“प्रयोजक करतां ' ओर 'हेतुकर्ता' भी कहलाता है

करता हूँ।)--इस वाक्यमे "विष्ण ' शब्दकी कर्म- | जहाँ कर्म हो कतकि रूपं विवक्षित हो, वह

_-___ _ -_~____________--ब===-~ब

* अध्याय तीन सौ इक्यावनमें श्लोक बाईससे अट्ठाईंसतक विभक्त्यथोंके प्रयोगका नियम ग्रताया गया है। वे सब शलोक यह

होते चाहिये थे; क्योकि वहाँ जो नियम या विधान दिये गये हैं, उनके उदाहरण यहाँ मिलते हैं।

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