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'विश्वे'--इन दोनोंका अर्थं है-सब। ये प्रथमा

विभक्तिके बहुवचनान्तरूप है । सर्वस्यै, सर्वस्मात्‌-

ये “सर्व” शब्दके क्रमशः चतुर्थी और पञ्चमी

विभक्तिके एकवचनान्त रूप हैं। कतरो मतः" दोमेंसें

कौन अभिमत है? यहाँ " कतर" शब्दका प्रथमामें

एकवचनान्त सिद्ध रूप दिया गया है । "कतर"

शब्द सर्वनाम है और "सर्व' शब्दकी भाँति

उसका रूप चलता दै। सवषाम्‌ (सर्व+षष्ठी°

बहु० ), स्वं च (* स्व ' शब्द भी सर्वनाम है । अतः

इसका रूप भी सर्ववत्‌ समझना चाहिये ।)

विश्वस्मिन्‌ (विश्व+सप्त० एक०)-इन शब्दोंके

शेष रूप “सर्व” शब्दके समान हैं। इसी प्रकार

उभय, कतर, कतम और अन्यतर आदि शब्दोंके

रूप होते हैं। पूरवे, पूर्वाः-ये “पूर्व” शब्दके

प्रथमान्त बहुवचन रूप हैँ । प्रथमान्त बहुवचनमें

पूर्वादि शब्दको विकल्पसे सर्वनाम माना जाता

है । सर्वनाम -पक्षमे "पूरवे" ओर सर्वनामाभव- पक्षम

"पूर्वाः ' रूपकी सिद्धि होती है। पूर्वस्यै (पूर्व+च०

एक०), ' पूर्वस्मात्‌ सुसमागत: '--पूर्वसे आया।

यहाँ ' पूर्व ' शब्दका पञ्चमी विभक्तिमें एकवचनान्त

रूप प्रयुक्त हुआ है । 'पूर्वे बुद्धिश्च पूर्वस्मिन्‌'-

पूर्वमे बुद्धि। यहाँ “पूर्व” शब्दका समीके एक

वचनरमे रूपद्वय प्रयुक्त हुआ है । 'पूर्व आदि नौ

शब्दोसे पञ्चमी और सप्तमीके एकवचनमें "डसि

और छि" के स्थानों ' स्मात्‌" ओर 'स्मिन्‌'

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११ १7३११.

“वृक्ष! शब्दके समान जानने चाहिये । “सर्वे,

चाहिये । इसी तरह “चरम ' शब्द, " तयप्‌ ' प्रत्ययान्त

शब्द तथा "अल्प", "अर्धं" और “नेम' आदि

शब्दोकि भी रूप होते हैं। यहाँ अन्तर इतना ही

है कि "चरम ओर ' कतिपय ' आदि शब्दोके शेष

रूप ' प्रथम ' शब्दके समान होंगे और "नेम" आदि

शब्दोकि शेष रूप सर्ववत्‌ होगे। जिसके अन्तमें

“तीय' लगा है, उन द्वितीय" ओर “तृतीय

शब्दके चतुर्थी, पञ्चमी और सप्तमौ विभक्तियोंमें

एकवचनान्त रूप विकल्पे सर्ववत्‌ होते है ।

जैसे -( चतुर्थी ) द्वितीयस्यै, द्वितीयाय । (पञ्चमी )

द्वितीयस्मात्‌, द्वितीयात्‌। (सप्तमी) द्वितीयस्मिन्‌,

द्वितीये।

इसी प्रकार 'तृतीय' शब्दके भी रूप होंगे।

इन दोनों शब्दोंके शेष रूप 'अर्क' शब्दके समान

होते हैं॥ ३२--३६ ३॥

अब "सोमपा शब्दके सिद्ध रूप क्रमशः दिये

जाते है-

१- सोमपाः, सोमपौ, सोमपाः। २- सोमपाम्‌,

सोमपौ, सोमपः। ३- सोमपा, सोमपाभ्याम्‌,

सोमपाभिः। ४-- सोमपे, सोमपाभ्याम्‌, सोमपाभ्यः।

५- सोमपः, सोमपाभ्याम्‌, सोमपाभ्यः।

६- सोमपः, सोमपोः, सोमपाम्‌। ७--सोमपि,

सोमपोः, सोमपासु। (यहाँ ज्ञेयौ, व्रज, हद और

कुलम्‌-ये पद पादपूर्तिमात्रके लिये दिये गये हैं।

यहाँ प्रकृते इनका कोई उपयोग नहीं है ।)

"सोमपा" शब्दके समान ही 'कीलालपा' आदि

आदेश विकल्पसे होते ह । उनके होनेपर पूर्वस्मात्‌ | शब्दोके रूप होगे । अब कवि, अग्नि, अरि, हरि,

और पूर्वस्मिन्‌ रूप बनते हैं और न होनेपर “राम!

शब्दकी भाँति "पूर्वात्‌" और "पूरवे" रूप होते हैं।

शेष रूप सर्ववत्‌ जानने चाहिये। इसी प्रकार पर,

अवर, दक्षिण, उत्तर, अन्तर, अपर, अधर और

नेम शब्दोंके भी रूप जानने चाहिये। प्रथमे,

प्रथमा:--ये ' प्रथम ' शब्दके बहुवचनान्त रूप हैं।

इनके शेष रूप “अर्क ' शब्दके समान जानने

सात्यकि, रवि, वह्ि--इन शब्दके कतिपय सिद्ध

रूप उद्धृत किये जाते हैं। कवि: (कवि+प्र०

एक०), अग्निः (अग्नि+प्र०« एक०), अरयः

(अरि+प्र० बहु०), हे कवे! (कवि+सम्बोधन

एक०), कविम्‌ (कवि+द्वि> एक०), अग्नी

(अग्नि+ट्ठि० दवि०), हरीन्‌ (हरिनद्वि० बहु०),

सात्यकिना (सात्यकि+तृ० एक०), रविभ्याम्‌

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