एकवचने सखयुः तथा सप्तमीके एकवचने
सख्यौ रूप होते हैं। शेष सभी रूप वद्धि" शब्दके
समान हैं। “पति' शब्दके प्रथमा और द्वितीया
विभक्तियोंमें वद्धिवत् रूप होते हैं, शेष विभक्तियोमें
वह “सखि' शब्दके समान रूप रखता है।
'अहर्पति:' का अर्थ है सूर्य। यहाँ 'पति' शब्द
समासमें आबद्ध है। समासमें उसका रूप वहितुल्य
ही होता है।
(अब उकारान्त शब्दका रूप प्रस्तुत करते
हैं।) पहले पुल्लिड्र 'पटु' शब्दके रूप दिये जाते
हैं। पटुका अर्थ है-कुशल--निपुण। १--पदु:,
पटू, पटवः) २--पदुम, पद्, पटूनू। ३--पदुना,
पटुभ्याम्, पटुभि:। ४--पटवे, पदुभ्याम्, पदुभ्य:।
५--पटोः, पटुभ्याम्, पदुभ्य:। ६--पटो:, पद्वो:,
पदूनाम्। ७--पटौ, पट्वोः, पटुषु। सम्बो०-हे
पटो, हे पटू, हे पटवः। इसी तरह भानु, शम्भु
विष्णु आदि शब्दोके रूप जानने चाहिये । दीर्घ
ईकारान्त "ग्रामणी ' शब्द है। इसका अर्थ है-
गाँवका मुखिया । इसका रूप इस प्रकार है--१--
ग्रामणीः, ग्रामण्यौ, ग्रामण्यः। २-- ग्रामणीम्,
ग्रामण्यौ, ग्रामण्यः! ३-- ग्रामण्या, ग्रामणीभ्याम्,
ग्रामणीभिः। ~ ग्रामण्ये, ग्रामणीभ्याम् २,
ग्रामणीभ्यः२।५-- ग्रामण्यः२। ६ -- ग्रामण्योः २।
बहुवचन ग्रामण्याम्। ७-- ग्रामण्याम्, ग्रामणीषु ।
इसी तरह “प्रधी' आदि शब्दोकि रूप जानने
चाहिये । दीर्घं ऊकारान्त "दृन्भू' शब्द है । इसका
अर्थं है--राजा, वज्र, सूर्य, सर्प और चक्र । इसका
खूप दृन्भूः, दृन््वौ, दुन्भ्वः इत्यादि । ' खलपूः ' -
खलिहान या भूमिको शुद्ध-- स्वच्छ करनेवाला ।
इसके रूप खलपूः, खलप्वौ, खलप्वः इत्यादि
भित्रभूः '-मित्रसे उत्पन्न। इसका रूप है-
मित्रभूः, पित्रभुवौ, भित्रभुवः इत्यादि। "स्वभू
इसके रूप-स्वभूः, स्वभुवौ, स्वभुवः इत्यादि
हैं॥ ४--६॥
'सुश्री:का अर्थ है--सुन्दर शोभासे सम्पन्न।
इसके रूप हैं--सुश्री:, सुश्रियौ, सुश्रियः इत्यादि ।
"सुधीः" का अर्थ है-उत्तम बुद्धिसे युक्त विद्वान् ।
इसके रूप है सुधीः, सुधियौ, सुधियः इत्यादि ।
(अब ऋकारान्त पिङ्ग "पितृ" तथा भ्रातृ"
शब्दोकि रूप दिये जते हैं--'पिता' का अर्थ है--
बाप और “भ्राता' का अर्थ है-भाई। “पितृ
शब्दके सब रूप इस प्रकार हैं-१--पिता, पितरौ,
पितरः। २-- पितरम्, पितरौ, पितृन्। ३--पित्रा,
पितृभ्याम्, पितृभ्यः। ४--पित्रे, पितृभ्याम्,
पितृभ्यः! ५--पितुः, पितृभ्याम्, पितृभ्यः। ६--
पितुः » पित्रोः, पितृणाम् । ७--पितरि, पित्रोः,
पितृषु। सम्बो०--हे पितः, हे पितरौ, हे पितरः ।
इसी तरह ' भ्रातृ" और " जामात् ' शब्दोकि भी रूप
होते हैं। न" शब्द नरका वाचक है । इसके रूप
जा, नरौ, नरः इत्यादि 'पितृ' शब्दवत् होते है ।
केवल षष्ठीके बहुवचने दो रूप होते है नृणाम्
। *कर्तृ' शब्दका अर्थ है करनेवाला । यह
"तृजन्त" शब्द है । इसके दो विभक्तियोंमें रूप इस
प्रकार हैं-कर्ता, कर्तारौ, कर्तारिः। कर्तारम्,
कर्तारौ, कर्तृन्। शेष "पितृ" शब्दको भांति ।
*क्रोष्ट' शब्द सियारका वाचक है । क्रोष्ट विकल्यसे
*क्रोष्टू' शब्दके रूपमे प्रयुक्त होता है । उस दशामें
इसका रूप "कर्तृ शब्दकी भाँति होता है।
'कोष्ठ' के रूपमें ही यदि इसके रूप लिये जाँ
तो "पट् ' शब्दकी तरह लेने चाहिये। ' नपृ" शब्द
नातीका वाचक है। इसके रूप "कर्तृ" शब्दकौ
भति होते है । 'सुरै' शब्दका अर्थं उत्तम धनवान्
है। ^" शब्दका अर्थ है--धन। ये ऐकारान्त पुल्लित्र
हैं। इन दोनोंके रूप एक-से होते है-९--सुराः,
का अर्थ है--स्वयम्भूः--स्वत: प्रकट होनेवाला। | सुरायौ, सुराय:। २--सुरायम्, सुरायौ, सुरायः।