स यातीह । सष याति। क ईश्वरः । ज्योतीरूपम्"।
तवच्छत्रम्“ । म्लेच्छ धीः ।दिद्रमोच्छिदत्॥ १०--१३॥
इस प्रकार आदि आग्ने महापुराणे 'संधिसिद्धलपकथन” नामक
तीन सौ प्रवातवां अध्याय पूरा हुआ# २५० ॥
भो इह"*। स्वदेवा यान्ति“ । भगो व्रज" । सु पूः?
सुदूर्रिरत्र ^ । वायुर्याति!?। पुनर्नि"? । पुना?" राति।
तीन सौ इक्यावनवाँ अध्याय
सुबन्त-सिद्ध रूप
स्कन्द कहते है-- कात्यायन ! अब मैं तुम्हारे | है । उन पिङ्ग आदि शब्दोंके नायकोंका* यहाँ
सम्मुख विभक्ति-सिद्ध रूपोंका वर्णन करता हूँ। | दिग्दर्शन कराया जाता है । जो शब्द नहीं कहे गये
विभक्तियां दो हैं-'सुप्' और “तिङ्'। ' सुप्" | (किंतु जिनके ` रूप इन्हींके समान होते हैं)
विभक्तियाँ सात हैं। सु ओ जस्'-- यह प्रथमा | उन्हीके ये “वृक्ष” आदि शब्द सामर्ध्यतः नायक
विधक्ति है। ' अम् ओद् शस्'- यह द्वितीया" टा | है । ' वृक्ष' शब्द पेड्का वाचकं है । यह अकारान्त
भ्याम् भिस्'- यह तृतीया, "ङ भ्याम् भ्यस्'-- | पिङ्ग है। इसके सात विभक्तियोंमें तथा सम्बोधने
यह चतुर्थी, "ङसि भ्याम् भ्यस्'-- यह पञ्चमी, | एकवचन, द्विवचन और बहुवचनके भेदसे कुल
“इस् ओस् आम् - यह षष्ठौ तथा 'डिः ओस् | मिलाकर चौबीस रूप होते है । ठन सबको यहाँ
सुप्'--यह सप्तमी विभक्ति है । ये सातो विभक्तियाँ | उद्धूत किया जाता रै । १-- वृक्षः, वृक्षौ, वृक्षाः ।
प्रातिपदिक संज्ञावाले शब्दोंसे परे प्रयुक्त होती | २--वृक्षम, वृक्षौ, वृक्षान्। ३--वृक्षेण, वृक्षाभ्याम्,
हैं॥ १--३॥ वृ्चैः। ४--वृक्षाय, वृक्षाभ्याम्, वुक्षेभ्यः।
“प्रातिपदिक " दो प्रकारका होता है--' अजन्त ' | ५-- वृक्षात्, वृक्षाभ्याम्, वृक्षेभ्यः। ६-- वृक्षस्य,
और "हलन्त '। इनमेंसे प्रत्येक पिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग | वृक्षयोः, वृक्षाणाम्) ७--वृक्षे, वृक्षयोः, वृक्षेषु।
ओर नपुंसकलिङ्गके भेदसे तीन-तीन प्रकारका | सम्बोधने-हे वृक्ष, हे वृक्षौ, हे वृक्षाः। इसी
१७-१८-१९. * भोस् इह', ' भगोस् व्रज" तथा ' अपस् याहि', ' स्वदैवास् यन्ति '--इत वाक्योंमें 'स्' की जगह रुत्व-यत्व हुआ। फिर
पहलेमें तो 'लोप: शाकल्यस्य।'--इस सूत्रसे और अम्य उदाहरणोमें 'हलि सर्वेपाम्।' (पा० सू० ८।३।२२)-इस सूत्रसे 'य' लोप
होगेफर निर्दिष्ट रूप बनते है । २०. 'सुपू:' यहाँ ' सुपूर'--इस अवस्थामें 'रकार'के स्थाने “विसर्ग' हुआ है। २९." सुदुद्+ सुद्राक्रिरज् ।'
अहाँ 'रोरि' से “र्' लोप होकर पूर्वस्थरको दौर्षत्व प्राप्त हुआ है। २२. इस उदाहरणमें 'वायुस्+याति '--ऐसा पदच्छेद है। यहाँ 'स्' के
स्थाने 'र', उकारकी इत्संज़ा और रेफका यकारसे मिलन हुआ है। २३. इस उदाहरणमें यह दिखाया गया है कि यहाँ 'खरवसानयोर्थिसर्जनोय: ।
(पा० सूर ८।३। १५) से रकारका विख नहीं हो सकता; क्योंकि न रेफ अवसान है और न उससे परे "खर् प्रत्याहारका हौ कोई
अक्षर है। २४. 'पुनरू+राति'--इस अवस्थामें 'रो रि।' (पा० सू० ८। ३। १४) से रकारका लोप हुआ और पूर्व ' अण्' को दोर्षत्व प्राप्त
हुआ है। २५. ' सस् याति इहे '--इस अवस्थामें ' एतत्तदोः सुलोपो ।--इस (पा० सूत्र ६। १। १३२) के अनुसार 'तत् -शब्दसम्बन्धी "सु"
विभक्तिसे सकारका लोप हो गया है। २६. ' सस् एषस् याति", 'क ईरय: '--इस अवस्थामें 'सस्'के सकारका लोप श्लोककी पादपूर्तिके
लिये हुआ है, ' एफ्स्'--के सकारका लोप पूर्यवत् हुआ है। २७. 'ज्वोतिर्+रूपम्'--यहाँ रलोप और दीर्घ हुआ है। २८. “तब + छत्रमू।"
यहाँ 'छे च।'--इस (पा० सू० ६। १।७३) सूत्रसे तुशागम हुआ है, फिर ' त" का श्चुत्वेन * च ' हो गया है। (यह व्यक्षतसंधिका उदाहरण
है।) २९. यहाँ भी 'दीर्घात्', 'पदान्ताद्व' (पा०्सू० ६। १५। ७५-७६) से तुगागम हुआ है। शेष पूर्ययत् (यहाँ भौ व्यञ्जनसंधि ही है) ।
+ अकारान्तसे लेकर औकारान्ततक जितने शब्द हैं, सब ' अजन्त' हैं। ऐसे शब्द असंख्य हैं, उन सबका उल्लेख असम्भवे है। अतः
कुछ शब्द यहाँ नमूनेके तौरपर दिये गये हैं, उन्हींके समान अन्य शब्दोंके रूप भौ होंगे। इन नमूनेके तौरपर दिये गये शब्दोंकों हो यहाँ
“जायक' कहा गया है।