भवाल्लेखा। भवाञ्जयः। भवाञ्छेते, भवाञ्चशेते, | इत्यादि ॥ ६--९॥
भवाच्छोते। भवाण्ठीनः। सम्भर्त्ता। त्वद्करिष्यसि* । इसके बादकी पदावलियोंमें विसर्ग -
* चक् यततः-वागूयतः। (* क्लां जशोऽन्ते ।' षा० सूर ८।२।३९) ' पदान्तमे 'झल्' के स्थाने ' जश्" होता ई '-इस नियमके
अनुसार ' याक् "के "क्" का "ग्" हो गया है । यद्यपि जशमें ज् ब् ग् इ द्-ये पाँच अक्षर हैं, तथापि ' रू ' के स्थाने ^ ग्" होनेका कारण
है स्थानक समानता । "क् ' और "ग्" का स्थान एक ह । दोनों हौ कष्ठस्थानसे निकलते हैं। आगेके चार उदाहरणॉमें भी यही निवम है--
अच्+एकमादृकः" अजेकमातृकः । यहाँ “ च्" कै स्थानें * ज ' हो गया है । स्वरहीत अक्षर अपने बादवाले अक्षरत मिल जाते हैं, अतः ^ ज्"
"ए में मिलकर 'जे' बन गया। ' षट्+ एते '- इसे “ट्' कै स्थाने " इ" हुआ है। इसी तरह " तत् + इमे" में “त् के स्थाने द्" तथा
"अप्+अदि' में "पृ" के स्थानमें ' ब्" हुआ है । ये पूर्बनिर्दिट जश्त्यविधान के उदाहरण हैं। अब अनुनासिकविधानके उदाहरण दिये जाते
हैं-- वाक्" नीतिः -याइनीति: । पदान्त ' य् प्रत्याहारके अक्षरोंका बिकल्पसे अनुनासिक होता है, कोई अनुनासिक अक्षर परे हो तब । यदि
प्रत्यय अनुनासिक परे हो तो ' यर्' के स्थानमें नित्य अनुनासिक होता है । इस नियमके अनुसार 'क् ' के स्थानमें उसी वर्गका अनुनासिक
अक्षर "द्" हो गया। अनुनासिकं न होनेकी स्थितियें पूर्वानियमानुसार ' जस्त्थ' होता है। उस दक्षामें ' वागूनीति: ' रूप होता है। पट्*मुख:-पष्मुख:
(पड्मुख: ) । उक्त नियमसे "ट" कौ जगह उसीके स्थान (मूर्धा)-का अनुनासिक ' ण्" हुआ। जश्त्व होनेपर “ड्' होता है। निम्नित
चदौंका पदच्छेद इस प्रकार है--याक्* मनसम्-बाइमनसम्। वाक् मात्रमू-वाइसात्रम्। अब छत्थविधानके उदाहरण देते हैं--वाक् +श्लक्ष्णमू-
वाकइलक्णम्, वावश्लक्ष्णम्। यहाँ 'श्'के स्थानमें विकल्पेन "ठ् हुआ है । नियम इस प्रकार है--' झयू' से परे 'श्' का “छ्' हो जाता है,
अम्" फ्रत्याहार पर रहनेपर । श्लुत्वविधान--सकार-तवरकि स्थानमें 'शकार' “चबर्ग' होते हैं, शकार-चवर्षका योग होतपर।
“सत्«शरौरम्'-' तच्छरीरम्'। यहाँ ' शरीरम्'के शकारका योग होनेसे "तत्" के "त्" की जगह 'च्' हो गया। इसके याद छत्व-विधानके
नियमानुसार “शकार 'के स्थात्रमें 'छकार' हो गया। “तहुत्राति' यह लकारात्मक परसबर्णका उदाहरण है। नियम यह है कि 'तबर्गसे परे
लकार हो तो उस तवर्गक्ा ' परसवर्ज ' होता है।' इसके अनुसार ' ततू*लुनाति' इस अवस्थामें 'त्' के स्थाने ' ल्' हों गया। तर्^ चरत् तच्चेत् ।
यहाँ क्षुत्वविधानके नियमानुसार पर्ववत् 'त्” को जगह 'च्' हो गया है। कुङ्, आस्ते-क्ुड्आस्ते। यह शमुडागम-विधानका उदाहरण है।
तरियम है कि हस्व अक्षरम परे यदि ' ङ् ण् म्" -ये व्यज्ञन हों और इनके आद स्वर अक्षर हों तो उक्त * ङ्' आदिकौ जगह एक और "ङ्"
आदि बढ़ जाते हैं। अर्थात् वे ङ्ङ ण् ण् ओरन् न् हो जाते हैं। इस नियमते उक्त उदाहरणमें एक " ड्" को जगह दो "इ इ" हो गये
हैं। इसी तरह 'सुगण्+*इह ' कौ जगह ' सुगणह' अता है। भवान्+चरन्«' भकं एन् '-- यह तक्काररुस्वविधानका उदाहरण है। नियम यह
है प्रशान्" से भिन्न जो नकारान्ते पद है, उनके "न्" की जगह "२! हो जाता है, यदि यादे "ट् ध चू ट् त्'-इनमेंसे कोई अक्षर
विद्यमान हो, तब। इस नियमसे उक्त उदाहरणमें 'न्' के स्थानमें 'र्' हुआ। 'र्' का विरस, विसर्गके स्थातमें 'स्' हुआ। 'स्* का छुत्व-
विधानके अनुसार * श्" हो गया। उसके पूर्व अनुस्थारका आगम होता है। कहीं-कहीं *चिरम्' पाठ मिलता है। उस दशामें ' भवांशिरम्'
रूप सिद्ध होगा। यदि 'चिरम्' के साथ परवर्ती ' भवान् ' शब्द ले लिया छव तो निम्नद्धितरूप सिद्ध होगा। चिरम्+भवानू-क्िरंभवान्,
चिरम्भवान्~- यहौ मकारके स्थाने अनुस्वार हुआ है। अनुस्थास्का वैकल्पिक परसवर्ण होनेपर ' चिरम्भवान्' रूप यन्त है ।"पोऽनुस्यारः ।--
इस पा० सूत्र (८।३।२३) के अनुसार कारानुस्वारविधानक्ा नियम इस प्रकार £-- पदान्ते" म" अनुष्का होता है, ' हत्" परे रहनेपर।
('नक्षापदान्तस्य झलि।' पा० सू» ८।३। २४) के अनुसार “झल' परे रहनेपर अपदात्त 'न् म्' के स्थाने भी अनुस्थार होता है। 'न्'के
अनुस्वारका उदाहरण है--' यशसि '। ' म्' के अनुस्वारका उदाहरण है ' आक्रंस्यते '। भवान्+ छात्रः = भवांश्छात्र:। यहाँ पूर्ववत् नकाररुत्व
विधानके अनुसार नकारका रुत्व, विसर्ग, सकार तथा अनुस्वारागम होकर श्रुत्परविधानके अनुसार 'स्' के स्थानमें 'श्' हो गया है।
भवानू+टीका« भर्वाँष्टीका। यहाँ भी ' न्' कौ जगह रुत्व, विसर्गं ओर सकार होकर अनुस्यारागम हुआ और हुत्व-विधानके अनुसार "स् के
स्थाने 'घ्" हो गया। यहों आत ' भवाँध्रक:' के साधने धी समझनी चाहिये--भवान्*ठक:। भवात्+वीर्थम्- धवोस्तीर्थम्। यहाँ भी
नकारका स्त्व, विसर्ग, सकार और अनुस्थारागम समझता चाहिये।' भवान् + था+ इत्याह--इसमें भी पूर्ववद् सब कार्य होंगे और था*इत्याहमें
गुण एकादेश होनेपर ' भवांस्थेत्याह '-- ऐसा रूप सिद्ध होगा।' भवान्+लेखा:» भवाग्रेखा: ।'--यहाँ लकारात्मक परसवर्ण सानुनासिक हुआ
है। ' भवात् अयः ' इसमें श्ुत्वविधानके अनुसार चवर्ग-यौगफै कारण तवर्य "म्" की जगह चयर्गीय 'ज्' हो गया है। ' भवन्" सोते" इस
पदच्छेदे ' भवाज्च्छेते, भवाज्ठेते, भवादे, भवाम् रेते ।'- ये रूप बनते है । पहलेमें 'शि तुक् ।' पा० सू (८१ ३।३१) के अनुसार
“शकार ' परे रहते चन्त पदको "तुक् " का आगम होता है । इसे “वान्ततुपागम' कहा जा सकता है । इसी तरह हस्व, दीर्ध और पदान्तसे परे
भी तुगागम होते ह । यहाँ 'जाव्ततुगागम 'के अनुसार ` तु ' हुआ। उक्" की इत्संज्ञा हुई, लोप हुआ। ' भवान् त् जेते" रहा। श्षुत्वविधानके
अनुसार "त्" के स्याने" च्" और *न्' के स्थानमें 'ज्' हुआ और 'श्' की जगह 'छ्' हुआ तो ' भवाज्च्छेते' बना। ' झरों झरि सवे!" { पा०
सूर ८।४।६५) के अनुसार "`का लोप होनेपर “चू' अदृश्य हो जाता है, अत: *भवाज्हेते' रह जाता है।'लोप' और ' छत्व” वैकल्पिक हैं,