संस्कारके द्वारा अग्निका वैष्णवीकरण करे। गर्भाधान
पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म एवं नामकरणादि-
समावर्तनान्त संस्कार करके प्रत्येक कर्मके लिये
आठ-आठ आहुतियाँ दे तथा सुवायुक्त सुक्के
द्वारा पूर्णाहुति प्रदान करे ॥ २६--३३॥
कुण्डके भीतर ऋतुस्नाता लक्ष्मीका ध्यान
करके हवन करे । कुण्डके भीतर जो लक्ष्मी हैं,
उन्हें " कुण्डलक्ष्मी ' कहा गया है । वे ही त्रिगुणात्मिका
प्रकृति हैं। ' वे सम्पूर्ण भूतोंकी तथा विद्या एवं
मन्त्र-समुदायकी योनि है । परमात्मस्वरूप अग्निदेव
मोक्षके कारण एवं मुक्तिदाता है । पूर्व दिशाकी
ओर कुण्डलक्ष्मीका सिर है, ईशान और अग्निकोणकी
ओर उसकी भुजाएँ हैं, वायव्य तथा नैऋत्यकोणमें
जंघाएँ है, उदरको “कुण्ड' कहा है तथा योनिके
स्थानम कुण्ड-योनिका विधान है। सत्त्व, रज
और तम-ये तीन गुण ही तीन मेखलाएँ हैं।'
पंद्रह समिधाओंका होम करे। फिर वायुसे लेकर
अग्निकोणतक "आघार" नामक दो आहुतियाँ दे।
इसी तरह आग्रेयसे ईशानान्ततक “आज्य-भाग'
नामक आहुतियोंका हवन करे। आज्यस्थालीमेंसे
उत्तर, दक्षिण और मध्यभागसे घृत लेकर द्वादशान्तसे,
अर्थात् मूलको बारह बार जप कर अग्निर्मे भी
उन्हीं दिशाओंमें उसकी आहुति दे और वहीं
उसका त्याग करे*। इसके बाद “भू: स्वाहा"
इत्यादि रूपसे व्याइति-होम करें। कमलके मध्यभागे
संस्कारसम्पन्न अग्निदेवका “विष्णु' रूपमे ध्यान
करे। 'बे सात जिह्वाओंसे युक्त हैं, करोड़ों सूर्योंके
समान उनकी प्रभा है, चन्द्रोपम मुख है और
सूर्य-सदृश देदीप्यमान नेत्र हैं।' इस तरह ध्यान
करके उनके लिये एक सौ आठ आहुतियाँ दे।
अथवा मूल-मन्त्रसे उसकी आधी एवं आठ
आहुतियाँ दे। अङ्गोके लिये भी दस-दस आहुतियाँ
इस प्रकार ध्यान करके प्रणवमन्त्रसे मुष्टिमुद्राद्वारा दे ॥ ३४--४१॥
इस श्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें “परविक्रारोपण- सम्बन्थी पूजा-होस-विधिका वर्णन” विषयक चाँतीसवाँ
अध्याव पूर हआ ॥ ३४॥
८
पैंतीसवाँ अध्याय
पवित्राधिवासन-विधि
अग्निदेव कहते हैं-- मुनीश्वर! सम्पाताहुतिसे | से उन्हें सुरक्षित रखे। पवित्राओंमें वस्त्र लपेटे
पवित्राओंका सेचन करके उनका अधिवासन | हुए ही उन्हें पात्रे रखकर अभिमन्त्रित करना
करना चाहिये । नृसिंह-मन््रका जप करके उन्हँ | चाहिये । बिल्व आदिके सम्पर्कसे युक्त जलद्वारा
अभिमन्त्रित करे और अस्वमन्त्र (अस्त्राय फट् ।)- | मनतरोच्चारणपूर्वक उन सबका एक या दो बार
* प्रादेशमात्र ग्रन्यियुछ दो कुशा लेकर, घौके बीचमें डालकर, उसके दो भाग करके, उसे शुक्ल और कृष्ण --दो प्के रूपमें
स्मरण कमै । कदनन्तर यामभागमें इड्ानाडी, दक्षिणभागमें पिक्गलाकाङडी और मध्यभागमें सुषुम्ना वाडीका ध्यान करके हवन करें। ' ॐ>
नम: ।'--इस मनद्वारा खुबसे दक्षिण भागकी ओरसे घी लेकर दाहिते वेत्र ॐ> अग्रये स्वाहा इदमग्नये ।' कहकर एक आहति दे। फिर
उत्तर भागसे घौ लेकर "ॐ सोमाय स्वाहा इदं सोमाय।' बोलकर एक आहुति अग्निके यामनेजमें दे। इसके बाद बीचसे घो लेकर
“अप्रौषोगाध्यां नम: ।' इस मन्त्रम एक आहुति अग्निके भालस्य वेत्र दे। फिर सुवद्ररा दक्षिण भागसे घो लेकर अग्निके मुखे 'अग्रये
स्विष्टकृते स्वाहा' बोलकर एक आहुति दे। इसके बाद व्याइति-होम करना चाहिये (मन्त्रमहार्णबसे ) । जिस भागसे आज्याहुति ली जाय,
आविक उसी भागमें उसका सम्पात या तदाग करे । जैसा कि कहा है ~
*स्वाहात्तहोम॑ विधाय ' स्वाहा" इत्यस्यान्त यस्माद् भागादाज्याहुतिरगृंड़ीता तस्मित्रेव भागे तस्य सम्पात॑ कुर्यात्।'
(शा० तित ५ पटल, श्लोक ५८ कौ टीका)