तो सिद्धानका आश्रय लेनेसे:और 'किसीको
भ्रान्तिसे होता है। किसी मुनिके सिद्धान्तका
आधार तर्क होता है और किसीके मतका
आलम्बन क्षणिक विज्ञानवाद। किसीका यह
मत है कि पञ्चभूतोके संघातसे शरीरमें चेतनता
आ जाती है, कोई स्वतःप्रकाश ज्ञानको ही
चैतन्यरूप मानते हैं। कोई प्रज्ञात स्थूलतावादी
है और कोई शब्दानेकान्तवादी। शैव, वैष्णव,
शाक्त तथा सौर सिद्धान्तोंको माननेवालॉका विचार
है कि इस जगत्का कारण ब्रह्म" है। परंतु
सांख्यवादी प्रधानतत्त्व (प्रकृति)-को ही दृश्य
जगत्का कारण मानते हैं। इसी वाणीलोकमें
विचरते हुए विचारक जो एक-दूसरेके प्रति
विपर्यस्त दृष्टि रखते हुए परस्पर युक्तियोंद्वारा
दूसरेको बाँधते हैं, उनका वह भिन्न-भिन्न
मत या मार्ग ही “विशिष्ट समय” कहा गया है।
यह विशिष्ट समय ' असत्के परिग्रह' तथा ' सत्के
परित्याग 'के कारण दो भेदोंमें विभक्त होता है।
जो प्रत्यक्ष" आदि प्रमाणोंसे बाधित हो, उस
मतको “असत्' मानते हैं। कवियोंको वह मत
ग्रहण करना चाहिये, जहाँ ज्ञानका प्रकाश हो। जो
अर्थक्रियाकारी हो, वही 'परमार्थ सत्" है। अज्ञान
और ज्ञानसे परे जो एकमात्र ब्रह्म है, वही परमार्थ
सत् जाननेयोग्य है। वही सृष्टि, पालन और
संहारका हेतुभूत विष्णु है, वही शब्द और
अलंकाररूप है। वही अपरा और परा विद्या है।
उसीको जानकर मनुष्य संसारबन्धनसे मुक्त होता
है ॥ २८--४० ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण्मे “ काय्यदोपविवेकका कथन” नामक
तीन सौ सँतालीसकाँ अध्याय पूरा हुआ# ३४७॥
=
तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय
एकाक्षरकोष
अग्निदेव कहते हैं-अब मैं तुम्हें
*एकाक्षराभिधान' तथा मातृकाओंके नाम एबं
मन्त्र बतलाता हूँ। सुनो-अ' नाम है भगवान्
विष्णुका। 'अ' निषेध अर्थमें भी आता है। 'आ'
ब्रह्माजीका बोध कराता है। वाक्य-प्रयोगमें भी
उसका उपयोग होता है। “सीमा” अर्थमें 'आ'
अव्ययपद है। क्रोध और पीड़ा अर्थमें भी उसका
प्रयोग किया जाता है। "इ" काम-अर्थमें प्रयुक्त
होता है। "ई" रति और लक्ष्मीके अर्थमें आता है।
"उ" शिवका वाचक है। "ऊ रक्षक आदि अर्थोमिं
प्रयुक्त होता है । 'ऋ' शब्दका बोधक है । 'ऋ"'
अदितिके अर्थमे प्रयुक्त होता है । 'लृ', 'लृ'-ये
दोनों अक्षर दिति एवं कुमार कार्तिकेयके बोधकं
हैं। 'ए! का अर्थं है-देवी। 'ऐ' योगिनीका
वाचक है। 'ओ' ब्रह्मजीका और ' औ” महादेवजीका
बोध करानेवाला है। “अं' का प्रयोग काम अर्थमें
होता है। 'अ:' प्रशस्त (श्रेष्ठ)-का वाचक है।
'क' ब्रह्मा आदिके अर्थमें आता है। 'कु' कुत्सित
(निन्दित) अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'खं'--यह पद
शुन्य, इन्द्रिय और मुखका वाचक है। ' ग' अक्षर
यदि पिङ्गे हो तो गन्धर्व, गणेश तथा गायकका
वाचक होता है। नपुंसकलिङ्ग "ग" गीत अर्थमें
प्रयुक्त होता है। 'घ' घण्टा तथा करधनीके
अग्रभागके अर्थमें आता दै। "ताडन" अर्थमें भी
'घ' आता है। "ङड' अक्षर विषय, स्यृहा तथा
भैरवका वाचक है। * च" दुर्जन तथा निर्मल-
अर्थे प्रयुक्तं होता है। ' छ का अर्थ छेदन है।
"जि" विजेयके अर्थमें आता है । "ज ' पद गीतका