माना गया है। जो कठिनता आदि दोषोंसे रहित | हैं। तुल्य वस्तुओंका क्रमश: कथन “यथासंख्य *
है तथा संनिवेश विशेषका तिरस्कार करके
मृदुरूपमें ही भासित होता है, वह गुण 'कोमलता' के
नामसे प्रसिद्ध है॥ १--१४॥
जिसमें स्थूललक्ष्यत्वकी प्रवृत्तिका लक्षण लक्षित
होता है, आशय अत्यन्त सुन्दररूपमें प्रकट होता
है, वह " उदास्ता ^ नामकं गुण है । इच्छित अर्थके
प्रति निर्वाहिका उपपादनं करनेवाली हेतुगर्भिणी
युक्तियोंको ' प्रौदि ' कहते है । स्वतन्त्र या परतन्त्र
कार्यके बाह्य एवं आन्तरिक संयोगसे अर्थकी जो
व्युत्पत्ति होती है, उसको ' सामयिकता' कहते हैं।
जो शब्द एवं अर्थ -दोर्नोको उपकृत करता है,
वह “उभयगुण' (शब्दार्थगुण) कहलाता है ।
साहित्यशास्त्रियोंने इसका विस्तार छः भेदोंमें
किया है--प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्तता,
पाकं ओर राग। सुप्रसिद्ध अर्थसे समन्वित पदोंका
संनिवेश “प्रसाद” कहा जाता है । जिसके उक्त
होनेपर कोई गुण उत्कर्षको प्राप्त हुआ प्रतीत होता
है, विद्वान् उसको 'सौभाग्य' या ' औदार्य' बतलाते
माना जाता है। समयानुसार वर्णनीय दारुण
वस्तुका भी अदारुण शब्दसे वर्णन
"प्राशस्त्य' कहलाता है। किसी पदार्थकी उच्च
परिणतिको “पाक' कहते हैं। 'मृद्दीकापाक' एवं
*नारिकेलाम्बुपाक ' के भेदसे 'पाक' दो प्रकारका
होता है। आदि और अन्तमें भी जहाँ सौरस्य हो,
वह “मृद्वीकापाक' है। काव्यमें जो छायाविशेष
(शोभाधिक्य) प्रस्तुत किया जाय, उसे “राग!
कहते हैं। यह राग अभ्यासमें लाया जानेपर
सहज कान्तिको भी लाँघ जाता है, अर्थात्
उसमें और भी उत्कर्ष ला देता है। जो अपने
विशेष लक्षणसे अनुभवमें आता हो, उसे 'वैशेषिक
गुण” जानना चाहिये। यह राग तीन प्रकारका
होता है--हारिद्रराग, कौसुम्भराग और नीलीराग।
(यहाँतक सामान्य गुणका विवेचन हुआ)।
अब “वैशेषिक'का परिचय देते हैं। वैशेषिक
उसको जानना चाहिये, जो स्वलक्षणगोचर हो--
अनन्यसाधारण हो॥ १५--२६॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'काव्यगुणविवेककथन” नामक
तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ# ३४५६ ॥
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हो । दण्डने सरस वाक्यको " मधुर ' बताया है, परंतु राजा भोकने ' सरस्वतीकण्ठाभरण ' मे आग्निपुराणोक्त लक्षणका ही भाव लेकर लिखा
है--भाधुय॑मुरमाचार्य: कऋरोधादावप्यतीत्रता '। यह अर्थगत माधुर्य है । शब्दगत माधुर्वका लक्षण वे भी वामनको भाँति पृथकृषदत्व' हौ
मानते ह ।
१. दण्डीने शब्दान्तरते अपने लक्षणे कुछ ऐसा हो भाव प्रकट किया है । उनका कहना है कि --'' जिस याक्यका उच्चारण करनेपर
उक्षे किस उत्कृष्ट गुणको प्रतीति हो, वहाँ उदारता" नामक गुण है। उसके द्वारा काव्यपद्धति 'कृतार्थ' (चमत्कारकारिणी)
होत है।'”
२. भोजराजने इसी अभिप्रायको आर भी सरल रीतिते व्यक्त किया है -' विवक्षितार्थनिर्वाह: काव्ये प्रौदिरिति स्मृता"
३. दण्हीने इसी लक्षणका भाव लेकर ' प्रसादवत् प्रसिद्धार्थम्।'--ऐसा लक्षण किया है। कामन भौ ' अर्धवैमत्यं प्रस्ठदः ।'-योँ
कहकर (इसी अभिप्रायकी पुष्टि की है। भोजराजने भी 'यतु प्राकट्यमर्थस्थ प्रसादः सोऽभिधीयते '- यौ लिखकर पूर्वोक्त अभिष्रायका हौ
पोषण किया है।
४, " यथासंख्य" को अवचन आलंकारिकोने गुण नहीं मात्रा है, उसे अलंकारकी कोटिमें रखा है ।