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+ अध्याय ३४४ «

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उपमेयकी सत्ता हो, उसको “ उपमा" कहते हैं

क्योंकि यत्किंचिद्विवक्षित सारूप्यका आश्रय

लेकर ही लोकयात्रा प्रवर्तित होती है। प्रतियोगी

(उपमान )-के समस्त और असमस्त होनेसे उपमा

दो प्रकारकी मानी गयी है-' ससमासा' एवं

"असमासा" । “घन इव श्यामः ' इत्यादि पदोंमें

समासके कारण वाचक शब्दके लुप्त होनेसे

“ससमासा उपमा' कही गयी है, इससे भिन्न

प्रकारकी उपमा ' असमासा" है । कहीं उपमाद्योतक

*इवादि' पद, कहीं उपमेय और कहीं दोनोंके

विरहसे 'ससमासा' उपमाके तीन भेद होते हैं।

इसी प्रकार "असमासा उपमाके भी तीन भेद हैं।

विशेषणसे युक्त होनेपर ठपमाके अठारह भेद होते

हैं। जिसमें साधारण धर्मका कथन या ज्ञान होता

है -उपमाके उस भेदविशेषकों धर्म या वस्तुकी

प्रधानताके कारण धर्मोपमा" एवं ' वस्तूपमा^

कहा जाता है। जिसमे उपमान और उपमेयकी

प्रसिद्धिके अनुसार परस्पर तुल्य उपमा दी जाती

है, वह “परस्परोपमा” होती है। प्रसिद्धिके

विपरीत उपमान और उपमेयकी विषमतामें जब

उपमा दौ जाती है, तब वह ' विपरीतोपमा^

कहलाती है । उपमा - जहो एक वस्तुसे ही उपमा

देकर अन्य उपमानोंका व्यावर्तन-निराकरण किया

जाता है, वहाँ 'नियमोपमा" होती है। यदि

उपमेयके गुणादि धर्मकी अन्य उपमानोंमें भी

अनुवृत्ति हो तो उसे “अनियमोपमा" कहते

हैं॥ १--१२॥

एकसे भिन्न धर्मोकि बाहुल्यका कीर्तन होनेसे

"समुच्चयोपमा होती है। जहाँ अनेक धर्मोंकी

समानता होनेपर भी उपमानसे उपमेयकी विलक्षणता

मीति ०.2.०८५ विद ५५०. यिमके

१. उपभाका अग्निषुराणोक्त लक्षण बहुत ही सीधा- सादा और स्पष्ट है । भरतमुनिने सादृर्यमूलक सभी अलंकारोंका " उपमा" नाम

दिया है --' यत्किंचित्‌ काव्यबन्येषु सादृश्येत्रोपमीयतें। उपमा नाम सा देवा ।' (१६। ४१) व्यासजौने अपने लक्षणमें उपमान्‌, उपमेय,

सामान्य धर्म ओर भेदका उम्लेख किया दै । भामहत्रे भी इसीको आधार बनाकर * यथेखराब्दौ सादृश्वमाहरु्यतिरेकिणोः ' -एेखा लक्षण

किया है। इसमें वाचक शब्द, सामान्य धर्म तथा भेद--तोतका उल्लेख किया है । उपमानोपमेयका हो तो स्वतःसिद्ध है । वामनने

*उपमानोपमेयस्‍्य गुणलेशतः साध्यमुपमा।'-इस सूत्रके द्वारा उक्त अभिष्रायका हो पोषण किया हैं। दण्डोने जहाँ किसी तरह भौ

सादृश्यकी स्पष्ट प्रतीति होती हो, उसे 'उपमा' कहा है। मम्मटते 'साधर्म्यमुपमा भेदे', वि शवनाधने ' साप्यं वाच्यमतैधम्य॑ वाक्यैक्य उपमा

हयोः ।' तथा भोजराजने ' प्रसिद्धेरनुरोधेन यः परस्परमर्धयोः । भूयोंउवयवसामान्ययोगः सेहोपमा मता ॥'-ऐसा लक्षण किया है । इन सबने

पूर्षवर्ती आचार्योंके हो मतोंका उपफादन किया है।

२. दण्डने अपने ' काष्यादशं "मे अग्निपुएण-कथित उपमाके इन भेदोंकों ग्रहण किया है और इनके स्रोदाहरण लक्षण भी दिये हैं।

जहाँ मुख्यतया तुल्यधर्मका प्रदर्शन किया गया, वहाँ 'धर्मोपमा” होती है। जैसे “तुम्हारी हेली कमलके समात्र लाल है'--इसमें

लालिमारूपी धर्मका स्पष्ट कथन होनेसे यहाँ ' धर्मोपमा' है।

३. जिसमें शब्दसे अनुपात्त-प्रतीयमान साधारण धर्म हो, केवल उपमान वस्तुक प्रतिपादन होनेसे वहाँ 'वस्तूषमा' होती है। जैसे ~

तुम्हारा मुख कमलके समान है।

४, 'घरस्परोपमा 'का दूसरा नाम ' अन्योन्योपसा' है। दण्डी इसो नाभस इसका उद्वे किया है। जहाँ उपमान और उपपेव --दोनों

एक-दूसरेके उपमेय तथा उपमान बनते है, वहाँ 'परस्परोपमा' होती है। जैसे -- तुम्हारे मुखके समान कमल हैं और कमलके समान

वुष्डात मुख है।'

५. दण्डौने अपने ' काव्यादर्श ' में थिपरोतोपमाका ' विपर्यासोपमा के नामसे उल्लेख किया है । जहाँ प्रसिद्धिके विपरीत उपमानोपमेयभाव

गृहीत होता है, वहाँ 'चिपरीतोपमा' होती है। जैसे --' खिला हुआ कमल तुम्हारे मुखके समान प्रतीत होता था'--इत्यादि।

६. दण्डौते इसका उदाहरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है "तुम्हारा मुख कमलके हौ समान है, दूसरी किसौ वस्तुके समान नही ॥'

७. इसका उदाहरण दण्डौके ' काव्यादर्श में इस प्रकार दिया गया है -' कपल तो तुम्हारे मुखका अनुकरण करता ही है, यदि दूसरी

वस्तु (चन्द्र आदि) भी तुम्हारे मुखके समान हैं तो रहें ।

८. 'समुख्ययोपमा' का उदाहरण दण्डीने इस प्रकार किया है--' सुन्दरि! तुम्हार मुख केवल कान्तिसे हौ तहाँ, आह्ादनकर्मसे भी

इन्दुकां अनुसरण करता है।' यहाँ कान्तिगुण और आह्ादतकर्म --दोनॉंका समुच्चय होनेके कारण " समुल्वयोपमा' कही गयो है।

362 अग्नि पुराण २४

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