* अध्याय ३४३ *
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प्रकार होती है। अनुप्रास, यमक आदि अलंकार
लघु होनेपर भी इस प्रकार सुधीजनोंद्वारा सम्मानित
होते हैं। आवृत्ति पदकी हो या वाक्य आदिकी,
जिस किसी आवृत्तिसे भी जो वर्णसमूह 'समान'
अनुभवे आता है, उस आवृत्तरूपको आदिमे
रखकर जो सानुप्रास पदरचना की जाती है, वह
सहदयजनोको रसास्वाद करानेवाली होती है।
सहृदयजनोंकी गोष्ठीमें जिस वाग्बन्ध (पदरचना) -
को कौतृहलपूर्वक पढ़ा और सुना जाता है, उसे
"चित्र" कहते है ॥ १८--२१३॥
इनके मुख्य सात भेद होते है - प्रश्र, प्रहेलिका,
गुप्त, च्युताक्षर, दत्ताक्षर, च्युतदतताक्षर ओर समस्या ।
जिसमें समानान्तरविन्यासपूर्वक उत्तर दिया जाय,
बह “प्रश्न कहा जाता है ओर वह “एकपृष्टोत्तर'
और 'ट्विपृष्टोत्तर'के भेदसे दो प्रकारका होता है ।
'एकपृष्ट'के भी दो भेद हैं-'समस्त' ओर
“व्यस्त ' । जिसमें दोनों अथोकि वाचक शब्द गृढ
रहते हैं, उसे ' प्रहेलिका" कहते हैँ । वह प्रहेलिका
"आर्थी ' और ' शाब्दी के भेदसे दो प्रकारकी होती
है । अर्थबोधके समप्बन्धसे ' आर्थी ' कही जाती है ।
शब्दबोधके सम्बन्धसे उसको “ शाब्दी" कहते है ।
इस प्रकार प्रहेलिकाके छः भेद बताये गयेर हैं।
वाक्याङ्गके गुप्त होनेपर भी सम्भाव्य अपारमार्थिक
अर्थ जिसके अङ्गम आकाङ्क्षसे युक्त स्थित
रहता है, वह 'गुप्त' कही जाती है । इसीको “गूढ़
भी कहते हैं। जिसमें वाक्याङ्गकी विकलतासे
अर्थान्तरकी प्रतीति विकलित अङ्घमे साकाङ्क्ष
रहती है, वह ' च्युताक्षरा" कही जाती है । वह
चार प्रकारकी होती है- स्वर, व्यञ्जन, बिन्दु और
विसर्गकी च्युतिके भेदसे। जिसमें वाक्याङ्गके
विकल अंशको पूर्ण कर देनेपर भी द्वितीय अर्थ
प्रतीत होता है, उसको “दत्ताक्षरा' कहते है ।
उसके भी स्वर आदिके कारण पूर्ववत् भेद होते
हैं। जिसमें लुषवर्णके स्थानपर अक्षरान्तरके रखनेपर
भी अर्थान्तरका आभास होता है, वह ' च्युतदत्ताक्षरा '
कही जाती है। जो किसी पद्यांशसे निर्मित और
किसी पद्यसे सम्बद्ध हो, वह 'समस्या' कही
जाती है। 'समस्या' दूसरेकी रचना होती है,
उसकी पूर्ति अपनी कृति है। इस प्रकार अपनी
तथा दूसरेकी कृतियोंके सांकर्यसे “समस्या' पूर्ण
होती है पूर्वोक्त 'चित्रकाव्य' अत्यन्त क्लेशसाध्य
होता है एवं दुष्कर होनेके कारण वह कविकी
कवित्व-शक्तिका सूचक होता है। यह नीरस
होनेपर भी सहदयोंके लिये महोत्सवके समान
होता है। यह नियम, विदर्भ और बन्धके भेदसे
तीन प्रकारका होता है। रमणीय कविताके रचयिता
कविकी प्रतिज्ञाको ' नियम ' कहते हैँ । नियम भी
स्थान, स्वर और व्यञ्जनके अनुबन्धसे तीन
१. चित्के छः भेद हैं-वर्ण, स्थान, स्वर, आकार, गति और यन्ध। वर्णचित्रके चतुर्व्यअन, तरिच्यञ्जन, द्विव्यजञन्, एकव्यअन,
क्रमस्थसर्वव्यज्जन्, छन्दो ऽक्षरव्यजजन्, पड्जादिस्वरण्यज्ञत्, मुरजाक्षर व्यज्ञत। चतुःस्थान चित्रोंमें निष्कष्ठ्य, निस्तालव्य, निर्दन्त्य, निरोप,
निर्मूर्धन्य। चतुस्वरॉमें दीर्षस्वर, प्रतिव्यञ्जनचिन्यस्त स्वर, अपास्तसमस्तस्वर। आकार-चित्रोंमें अह्टटल कमल, चतुर्दल कमल, षोडशदल
कमल, चक्र, चतुरडू। गतिचित्रोंमें गतप्रत्यागत, तुरङ्गपद, अर्द्ध॑भ्रम, स्लोकरर्द्धप्रम, सर्वतोभद। बन्धचित्रोमें ट्विचतुष्कचक्रबन्ध, द्विशृग्रारवन्धक,
अयुग्मपादगोमृत्रिका,
संस्कृतप्राकृतगोमृत्रिका,
गोमृत्िकाधेनु,
युग्मपादगौमूत्रिका, सलौकगोमृत्रिका, विपरीतगोमृत्रिका, भिनछन्दोगोपूत्रिका, अर्ध॑मूत्रिकाप्रस्तार,
शतधेनु, सहसधेनु, अयुतधेनु, लक्षघेनु, कोटिधेनु, कामधेनु इत्यादि परिगणित चिकि अतिरिक्त भो अनेक बन्ध होते हैं, जैसे--शरमन्ध,
धनुर्वन्ध, मुसलबन्ध, खङ्ग बन्ध्, श्लुरिकाबन्ध आदि। इनके अतिरिक्त भौ अनेकानेक अन्ध विद्धानोंद्वा। ऊनोय हैं। चित्रकाव्योंको चर्चा
दण्डोके " काव्यादर्श 'में भी मिलती है और भोजराजने 'सरस्वतोकण्ठाभरण ' में उनका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है।
२. भोजराजके मतमें 'प्रहेलिका 'के छ: भेद यो होते हैं-च्युताक्षरा, दत्ताक्षरा, च्युतंदत्ताक्षरा, अक्षरमुष्टिका, चिन्दुमोती तथा आर्थवती।
(सरस्वतीकण्ठाभरण, परिच्छेद २। १३३)