Home
← पिछला
अगला →

७१६ * अग्निपुराण °

दवदव

तीन वर्णोकी पर्यायसे आवृत्ति होनेपर कुल सात | चतुर्व्यवसित यमक तथा माला" यमक । इनके भी

भेद होते है । यदि सात पादोंमें उत्तरोत्तर पाद | अन्य अनेक भेद, होते हैं॥११--१७॥

एक, दो ओर तीन पदोंसे आरम्भ हो तो अन्तिम | सहदयजन भिन्नार्थवाची पदकी आवृत्तिको

पाद छः प्रकारका हो जाता है । तीसरा पाद पादके | 'स्वतन्त्र' एवं * अस्वतन्त्र '. पदके आवर्त्तनसे दो

आदि, मध्य और अन्तमं आवृत्ति होनेसे तीन | प्रकारकी मानते हैँ । दो आवृत्त पदोंका समास

प्रकारका होता है। श्रेष्ठ यमकके निम्नलिखित दस | होनेपर "समस्ता" और उनके समासरहित रहनेपर

भेद होते ह~ पादान्त यमक, काञ्जी यमक, | ' व्यस्ता" आवृत्ति कही जाती है । एक पादमें

समुद्ग यमक, विक्रान्त्य यमक, वक्रवाल यमक, | विग्रह होनेसे असमासत्वप्रयुक्त * व्यस्ता" जानी

संदष्ट यमक, पादादि यमक, आग्रेडित यमक, | जाती है। यथासम्भव वाक्यकी भी आवृत्ति इस यमक, पादादि यमक, आग्रेडित यमक, | जाती है। यथासम्भव वाक्यकी भी आवृत्ति इस

१. यमकके जो पादान्त यमक ' आदि दस भेद निरूपित हुए हैं, वे 'नाटयज्ास्तर' अध्याप १६, शलोक ६०--६२ तक ज्यॉ-के-त्यों

उपलब्ध होते ह तथा श्लोक ६३ से ८६ तक इन सबके लक्षण और उदाहरण भी दिये षये हं । उन सबको यहाँ देखना चाहिये । केवल

एक ' फादान्त-यमक" का लक्षण और उदाहरण यहाँ दिग्दर्शनमात्रके लिये दिया जाता है । जहाँ चारों पादोके अन्ते एक समान अक्षर

प्रयुक्त होते हैं, उसे 'पादान्त-यमक' जानना चाहिये। जैसे--तिस्ताद्धित श्लोकके चारों पादोंके अन्तमें 'मेण्डल'--इन तीन अक्षरोंकी

समानरूपसे आवृत्ति हुई हैं--

दिनक्षयात्संहतरश्मिमण्डल॑ दिवीव लग्न॑ तपत्रीयमण्डलम्‌। विभाति तापं दिवि सूर्यमण्डल॑ यथा तरुण्याः स्तनभारमण्डलम्‌ ॥

(१६।६४)

आचार्य भामहने यकके पाँच हो भेद दिये ह ~ आदि यमक, मध्यान्त ययक, पादाध्यास, आयली ओर सयस्तपाद यपक (द्रष्टव्य

भाषह “काव्याल॑०' द्वितीय परिच्छेद ) । आचार्य वामनते 'पाद-यमक', एक पादके आदिमध्यान्त्यं यमक, दौ पादोकि आदिमध्यान्त्व

यमक, एकान्तर पादान्त यमक, एकान्तर पादादि मध्य यमक, द्विविध अक्षर यमक, भरिविध भू्मार्ष- शृङ्खला, परिवर्तक और चूर्ण आदि

भेद माने हैं।

२. 'सरस्वतोकण्ठाभरण ' के रचयिता भोजजने अगनपुराणके इसी प्रसङ्गमे अपनी सुरु वाणीद्वारा इस प्रकार कहा है--

(२।५८-६२)

उपयुक्त स्‍्लोकॉके अनुसार यमकोकि भेद इस प्रकार बनते है --' स्थाववमक ' और ' अस्थानयपक ' । स्थानयमकॉमें चतुष्पाद यमक,

श्िषाद यमक, द्विफद यमक और एकपाद यमक होते हैं। चतुष्फद यमकॉमें व्यपेत आदि ययक, अव्यपेत पथ्य यमक, अव्यपेत अन्त्य

यपक, आदिमध्य वमक, आघन्त यमक, मध्यान्त यमक तथा आदिमध्यात्त यमक। त्रिपाद यमकॉमें अच्यपेव आदि वमक, अव्यपेत

मध्य यमक, अव्यपेत अन्त्य वमक, मध्य यमक, अन्त्य चयक । ट्विपाद यमकॉमें अव्यपेत आदि यमक, अच्यपेत मध्य यमक, अन्त्य

अमक, आदिमध्य यमक इत्यादि । एकपाद यमकॉमें अव्यपेत आदि वभक, अव्यपेत अन्त्य यमक, मध्य यमक । इसी प्रकार सकृत्‌

आवृत्ति और असकृत्‌ आवृत्तिमें भी अव्यपेत यमक होता है । ' अव्यपेत ' का अर्थ है अव्यवहित और ' व्यपेत ' का अर्थ है व्यवधानयुकत ।

आवृत्तिकी एकरूपता और अधिकतायें भी अव्यपेत आदि, मध्यादि यमकं होने सम्भव हैं। व्यपेत आदि यमक. मध्य यमक, अन्य

यमक, आदिमध्य यमक, मध्यान्त्य यमक और आदिमध्यान्य यमक--ये चतुष्पाद यमोपि होते हैं। त्रिपाद और ट्विपाद यमकॉपें

भौ व्यपेत आदि यमक, मध्य यमक और अन्त्य वमक होते हैं। आवृत्तिकों अधिकतामें भौ आदि, मध्य यमकके व्यपेतरूप देखे डते

हैं। इसी तरह आयृत्तिको एकरूपतामें भी आदि, मध्य तथा मध्यान्त्य यमक कविजनॉकौ रचनाम उपलब्ध हैं। इन सवे आवृत्ति

व्यवहित होती है, इसलिये इक्क ' व्यपेत यमक' कहा जाता है। जहाँ आदि, मध्य और अन्तका नियम न हो, ऐसे यमकॉको ' अस्थातवमक'

कहते हैं। इनके भी व्यपेत और अव्यपेत आदि बहुत-सें स्थूल-सूक्ष्म भेद हैं। इन सबका विस्तार ' सरस्वतीकण्ठाभरण, ट्वितीय

परिच्छेदे देखन चाहिये।

← पिछला
अगला →