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द्रव्योंका संग्रह करे। हाथ-पैर धो ले। सब
सामग्रीको यथास्थान जँचाकर हाथमें अर्यं लेकर
मनुष्य उसके जलसे अपने मस्तकको सींचे। फिर
द्वारदेश आदिमें भी जल छिड़के। तदनन्तर
द्वारयाग (द्वारस्थ देवताओंका पूजन) आरम्भ
करे। पहले तोरणेश्वरॉंकी भलीभाँति पूजा करे।
पूर्वांदि दिशाओंके क्रमसे अश्वत्थ, उदुम्बर, वर
तथा पाकर--ये वृक्ष पूजनीय हैं। इनके सिवा पूर्व
दिशामें ऋग्वेद, इन्द्र तथा शोभनकी, दक्षिणमें
यजुर्वेद, यम तथा सुभद्रकी, पश्चिममें सामवेद,
वरुण तथा सुधन्वाकौ और उत्तरमें अथर्ववेद,
सोम एवं सुहोत्रकी अर्चना करे ॥ १--५॥
तोरण (फाटक)-के भीतर पताकाएँ फहरायी
जायें, दो-दो कलश स्थापित हों और कुमुद
आदि दिग्गजोंका पूजन हो। प्रत्येक दरवाजेपर
दो-दो द्वारपालॉकी उनके नाम-मन्त्रसे ही पूजा
की जाय। पूर्व दिशामें पूर्ण और पुष्करका, दक्षिण
दिशामें आनन्द और नन्दनका, पश्चिममें वीरसेन
और सुषेणका तथा उत्तर दिशामें सम्भव और
प्रभव नामक द्वारपालॉंका पूजन करना चाहिये।
अस्त्र-मन्त्र (फट्) -के उच्चारणपूर्वक फूल विखेरकर
विघ्नोंका अपसारण करनेके पश्चात् मण्डपके
भीतर प्रवेश करे। भूतशुद्धि, न्यास और मुद्रा
करके शिखा (वषट्) -के अन्तर्मे “फट्' जोड़कर
उसका जप करते हुए सम्पूर्ण दिशाओंमें सरसों
* अध्याय ३४ *
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दरद
मन्त्रसे गोमय, प्रद्यम्न-मन्त्रसे गोदुग्ध, अनिरुद्ध-
मन्त्रसे दही और नारायण-मन्त्रसे घृत लेकर
सबको घृतपात्रे एकत्र करे; अन्य वस्तुओंका
भाग घीसे अधिक होना चाहिये। इन सबके
मिलनेसे जो वस्तु तैयार होती है, उसे “ पञ्चगव्य '
कहा गया है । पञ्चगव्य एक, दो या तीन बार
अलग-अलग बनावे। इनमेंसे एक तो मण्डप
(तथा वहाँकी वस्तुओं )-का प्रोक्षण करनेके लिये
है, दूसरा प्राशनके लिये और तीसरा खानक
उपयोगमें आता है। दस कलशोंकी स्थापना
करके उनमें इन्द्रादि लोकपार्लोकी पूजा करे ।
पूजन करके उन्हें श्रीहरिकी आज्ञा सुनवे-
*लोकपालगण ! आपको इस यज्ञकी रक्षाके लिये
श्रीहरिकी आज्ञासे यहाँ सदा स्थित रहना
चाहिये '॥ ६--१२॥
याग-द्रव्य आदिकी रक्षाकी व्यवस्था करके
विकिर! (विघ्न-निवारणके लिये सब ओर छि
जानेवाले सर्षप आदि) द्रव्योंको बिखेरे। सातः
बार अस्त्र-सम्बन्धी मूल-मन्त्र (अस्त्राय फट्)-
का जप करते हुए ही उक्त वस्तुओंको सब ओर
बिखेरना चाहिये । फिर उसी तरह अस्त्र-मन्त्रका
जप करके कुश-कृूर्च ले आवे। उन्हें ईशान
कोणमें रखकर उन्होंके ऊपर कलश और वर्धनीको
स्थापित करे। कलशमें श्रीहरिका साङ्गं पूजन
करके वर्धनीमें अस्त्रकी अर्चना करे। वर्धनीकी
छीटे। इसके बाद वासुदेव-मन्त्रसे गोमूत्र, संकर्षण- | छिन्न धारासे यागमण्डपको प्रदक्षिणाक्रमसे सींचते
१. शारदातिलक (पटल ४ श्लोक १४-१५)-में लाजा, चन्दन, सरसों, भस्म, दूर्वाजरुर तथा अक्षतको 'विकिर' कहा है; ये समस्त
विष्मसमूहका नाश कानेवाले हैं--
लाजाश्षन्दनसिद्धार्थभस्मदूर्वाकु राक्षता: ॥ विकिगा इति संदिष्टाः सर्वविज्नौघनाशना: ॥
२. शारदातिलकर्में भौ स्तत जार अस्व -मन्त्र-जपपूर्वक विकिरे-विकिरणका विधान है। यथा -
विकिरन् खिकिरेतत्र सलजसाञ्छराणुना ४
३. पचस कुरते बंधा हुआ कूर्च 'ज्ञानखड़ ' कहा गया है । दो दर्भॉका सामान्य कूर्च तथा पाँच-पाँच कुशॉंका विशेष कूर्च होता
है । सक्र कुशोंका ` ्र्मकूचं ' होता है । कूर्चोका दण्ड एक बित्तेका, उनकी ब्रहम्रन्धि एक अरङ्गुलकौ और उसके अग्रभागकी लंबाई तीन
अङ्गुलकौ होनी चाहिये। (ईज्ञानशिव गुल्देवपद्धति, प्रम पटल १४-१५)