"असंयुत" तथा “संयुत'--दो प्रकारका होता है । | असङ्ग, निषध, दोल, पुष्पपुट, मकर, गजदन्त
पताक, त्रिपताक, कर्तरीमुख, अर्द्धचन्द्र, उत्कराल, | एवं बहिःस्तम्भ। संयुत करके परिवर्द्धससे इसके
शुकतुण्ड, मुष्टि, शिखर, कपित्थ, कटकामुख, | अन्य भेद भी होते हैँ ॥ १७-१८॥
सूच्यास्य, पद्मकोष, अतिशिरा, मृगशीर्षक, कामूल, | वक्षःस्थलका अभिनय आभुग्ननर्तन आदि
कालपद्म, चतुर्, भ्रमर, हंसास्य, हंसपक्ष, संदंश, | भेदोंसे पाँच' प्रकारका होता है। उदरकर्मः
मुकुल, ऊर्णनाभ एवं ताभ्रचूड -' असंयुत हस्त 'के | अनतिक्षाम, खल्व तथा पूर्ण - तीन प्रकारके होते
ये चौबीस भेद कहे गये हैं'॥१--१६॥ हैं। पार्धभागोकि पाँच" कर्म तथा जङ्धाकेः भी पाँच
" संयुत हस्त" के तेरह भेद माने जाते हैं-- | ही कर्म होते हैं। नारथ -नृत्य आदिमे पादकर्मके
अञ्जलि, कपोत, कर्कट, स्वस्तिक, कटक, वर्धमान, | अनेक भेद होते है ॥ १९--२१॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महाएुराणमें “कृत्य आदिमे उपयोगी विभिन्न भङ्गोकी क्रियाओंका वरिरूपण'
नामक तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३४९ #
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तीन सौ बयालीसवां अध्याय
अभिनय और अलंकारोंका निरूपण
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ | काव्य ' अथवा | है । उसके बिना सबकी स्वतन्त्रता व्यर्थ ही है।
नाटक ' आदिमे वर्णित विषयोंको जो अभिमुख | सम्भोग" और ' विप्रलम्भ*के भेदसे शृङ्गार दो
कर देता-सामने ला देता, अर्थात् मूर्तरूपसे | प्रकारका माना जाता है । उनके भी 'प्रच्छन्न' एवं
प्रत्यक्ष दिखा देता है, पात्रोके उस कार्यकलापको | ' प्रकाश '- दो भेद होते है । विप्रलम्भ शृङ्गारके
विद्वान् पुरुष * अभिनय ' मानते या कहते हैँ । वह | चार भेद माने जाते है - पूर्वानुराग, मान, प्रवास
चार प्रकारसे सम्भव होता है । उन चारों अभिन्योकि | एवं करुणात्मक॥ ३--५॥
नाम इस प्रकार है -- सात्विक, वाचिक, आङ्गिक | इन पूर्वानुरागादिसे " सम्भोग शृङ्गारकी उत्पत्ति
और आहार्य । स्तम्भ, स्वेद आदि * सात्त्विक | होती है। वह भी चार भागोमे विभाजित होता है
अभिनय हैं; वाणीसे जिसका आरम्भ होता है, | एवं पूर्वका अतिक्रमण नहीं करता। यह स्त्री और
वह ' वाचिकं अभिनय" है; शरीरसे आरम्भ किये | पुरुषका आश्रय लेकर स्थित होता है। उस
जानेवाले अभिनयको "आङ्गिक कहते हैं तथा | शृङ्गारी साधिका अथवा अभिव्यज्जिका "रति"
जिसका आरम्भ बुद्धिसे किया जाता है, वह | मानी गयी है । उसमें वैवर्ण्यं ओर प्रलयके सिवा
"आहार्यं अभिनय ' कहा गया है ॥ १-२॥ अन्य सभी सात्विक, भावोंका उदय होता है।
रसादिका आधान अभिमानकी सत्तासे होता | धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थोसे,
१. हस्तकर्मके विशद विवेचकके लिये द्रव्य ~ नाटयराख, नवप अध्याय ।
२. आभुग्न, तिभ, प्रकम्पित, उद्वाहित तथा सम - ये "वक्षःस्थल "के पांच भेद हैं। ( द्रष्टन्य--अध्याय ९, श्लोक २२१- २३२)
३. कुछ लोग क्षाम, खल्व, सम तथा पूर्नं -ये उदर के चार भेद मानते हैं।
४. चत, सपुनत, प्रसारित, चिचर्तित तथा अपसृत-ये 'पराश्रंभाग'के पाँच कमं है । (द्रष्व्य--अध्याय ९, श्लोक २३३- २४०)
५. वाटयशास्त्रमें 'ऊरुकर्म ” और " जङ्घाकर्म ' दोनों हौ पौव - पफल बताये है । कम्यन्, कलन, स्तम्भ, उदरतन और वियर्तन--ये पाँच
"ऊरुक हैं तथा आपर्तित, नत, क्षि, उद्वाहित तथा परिवृत्त-ये पाँच “जद्बाकर्म' हैं। (द्रष्टव्य - अध्याय ९, श्लोक ₹५०--२६५)
६. स्तम्भ, स्येद्, रोमाञ्च, स्वरभङ्ग, वेषथु, वैव, अनर तथा प्रलय--ये आठ सात्विक भाव हैं। इनमेंसे वैवर्ण्य और प्रलयका
उद्गम सम्भोग- भृङ्गार नही होता।