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भाषणको 'प्रलाप', दुःखपूर्ण वचनको 'विलाप', | जाता है। शिक्षापूर्ण: वचनको “उपदेश” और

बारंबार कथनको “अनुलाप', कथोपकथनको | व्याजोक्तिको ' व्यपदेश" कहते हैं। दूसरोंको

*संलाप', निरर्थकं भाषणको 'अपलाप', वात्तकि | अभीष्ट अर्थका ज्ञान करानेके लिये उत्तम बुद्धिका

परिवहनको “संदेश” और विषयके प्रतिपादनको | आश्रय लेकर वागारम्भका व्यापार होता है।

“निर्देश कहते हैं। तत्त्वकथनकों 'अतिदेश' | उसके भी रीति, वृत्ति और प्रवृत्ति-ये तीन भेद

एवं निस्सार वस्तुके वर्णनको 'अपदेश' कहा | होते हैं॥ ४९--५४॥ |

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ^ शृङ्गारादि रसः भाव तथा नायक आदिक निरूपण ” नामक

तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३३९ ॥

^

तीन सौ चालीसवाँ अध्याय

रीति-निरूपण

अग्निदेव कहते है-- वसिष्ट! अब मैं वाग्विद्या

(काव्यशास्त्र) -के सम्यक्‌ परिज्ञानके लिये “रीति'का

वर्णन करता हूँ। उसके भी चार भेद होते हैं--

पाञ्चाली, गौडी, वैदर्भी तथा लाटी। इनमें

"पाञ्चाली रीति" उपचारयुक्त, कोमल एवं लघु-

समासोसे समन्वित होती है। "गौडी रीति'में

संदर्भकी अधिकता ओर लंबे-लंबे समासोंकी

बहुलता होती है। वह अधिक उपचारोंसे युक्त

नहीं होती । 'वैदर्भी रीति” उपचाररहित, सामान्यतः

कोमल संदर्भाँसे युक्त एवं समासवर्जित होती है।

"लारी रीति' संदर्भकी स्पष्टतासे युक्त होती है,

किंतु उसमें समास अत्यन्त स्पष्ट नहीं होते। वह

यद्यपि अनेक विद्वानोंद्वारा परित्यक्त है, तथापि

अतिबहुल उपचारयुक्त लाटी रीतिकी रचना उपलब्ध

होती है॥ १--४॥

(अब वृत्ति्योका वर्णन किया जाता है--)

जो क्रियाओंमें विषमताको प्राप्त नहीं होती, वह

" | वाक्यरचना "वृत्ति" कही गयी है। उसके चार भेद

है-- भारती, आरभरी, कैशिकी एवं सात्वती ।

“भारती वृत्ति" वाचिक अभिनयकी प्रधानतासे

युक्त होती है। यह प्रायः (नट) पुरुषके आश्रित

होती है, किंतु कभी-कभी स्त्री (नटी)-के

आश्रित होनेपर यह प्राकृत उक्तियोंसे संयुक्त होती

है । भरतके द्वारा प्रयुक्त होनेके कारण इसे “ भारती"

कहा जाता है। भारतीके चार अङ्ग माने गये हैं--

वीथी, प्रहसन, आमुख एवं नाटकादिकी प्ररोचना ।

वीथीके तेरह अङ्गं होते हैं--उद्धातकं, लपित,

असत्प्रलाप, वाकृश्रेणी, नालिका, विपण, व्याहार,

त्रिगत, छल, अवस्यन्दित, गण्ड, मृदव एवं

उचित। तापस आदिके परिहासयुक्त वचनको

“प्रहसन ' कहते हैं। "आरभटी वृत्ति'में माया,

इन्द्रजाल और युद्ध आदिकी बहुलता मानी गयी

है। आरभटी वृत्तिके भेद निम्नलिखित हैं--

संक्षि्ठकार, पात तथा वस्तूत्थापन * ॥ ५--११॥

इस प्रकार आदि आग्तेव महापुयाणमें 'रीतितिरूएण तरामक

तीन सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हआ॥ ३४० ॥

~^

अश्जिपुराणमें काव्यशास्त्रके सम्यक्‌ ज्ञानके लिये रीतिज्ञान आवश्यक बतलाया है; इसीका सहारा लेकर आचार्य वामनने

रौतिपत्मा काव्यस्य ।'- एस सूत्रके द्वण रौतिको ' काव्यका आत्मा' कहा है और विशिष्ट पद -रचवाका काम ' रीति दिया है। आग्निपुराणमें

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