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तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय

शृङ्कारादि रस, भाव तथा नायक आदिका निरूपण

अग्निदेव कहते है -- वसिष्ठ ! वेद न्तशास्त्रमे

जिस अक्षर (अविनाशी), सनातन, अजन्मा और

व्यापक परब्रह्म परमेश्वरको अद्वितीय, चैतन्यस्वरूप

और ज्योतिर्मय कहते हैं, उसका सहज (स्वरूपभूत)

आनन्द कभी-कभी व्यञ्जित होता है, उस आनन्दकी

अभिव्यक्तिका ही "चैतन्य", * चमत्कार! ओर "रस 'के

नामसे वर्णन किया जाता है'। आनन्दका जो प्रथम

विकार है, उसे * अहंकार" कहा गया है । अहंकारसे

“अभिमान 'का प्रादुर्भाव हुआ। इस अभिमानमें ही

तीनों लोकॉंकी समाप्ति हुई है॥१-३॥

अभिमानसे रतिकी उत्पत्ति हुई और वह

व्यभिचारी आदि भाव-सामान्यके सहकारसे पुष्ट

होकर ' श्रृज्ञार' के नामसे गायी जाती है। शृङ्गारके

इच्छानुसार हास्य आदि अनेक दूसरे भेद प्रकट

हुए हैं'। उनके अपने-अपने विशेष स्थायी भाव

होते हैं, जिनका परिपोष (अभिव्यक्ति) ही उन-

उन रसोंका लक्षण है ॥ ४-५॥

वे रस परमात्माके सत्त्वादि गुणोंके विस्तारसे

प्रकट होते हैँ । अनुरागसे शृङ्गार, तीक्ष्णतासे रौद्र,

उत्साहसे वीर ओर संकोचसे बीभत्स रसका उदय

होता है। शृङ्गार रससे हास्य, रौद्र रससे करुण

रस, वीर रससे अद्भुत रस तथा बीभत्स रससे

भयानकं रसकी निष्पत्ति होती है। शृद्धार, हास्य,

करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और

शान्त-ये नौ रस माने गये हैं। वैसे सहज रस

तो चार (शृङ्गार, रौद्र, वीर एवं बीभत्स) ही हैं।

जैसे बिना त्यागके धनकी शोभा नहीं होती, वैसे

ही रसहीन वाणीकी भी शोभा नहीं होती । अपार

काव्यसंसारमें कवि ही प्रजापति है। उसको

संसारका जैसा स्वरूप रुचिकर जान पड़ता है,

उसके काव्यम यह जगत्‌ वैसे ही रूपे परिवर्तित

होता है। यदि कवि श्रृज्भारर्सका प्रेमी है, तो

उसके काव्यम रसमय जगत्‌का प्राकट्य होता दै ।

यदि कवि शृङ्गारी न हो तो निश्चय ही काव्य

नीरस होगा। "रस" भावहीन नहीं है ओर " भाव"

भी रससे रहित नहीं है; क्योकि इन भावोंसे

रसकी भावना (अभिव्यक्ति) होती है । ' भाव्यन्ते

रसा एभिः।' (भावित होते हैं रस इनके द्वारा )--

इस व्युत्पत्तिके अनुसार वे “भाव” कहे गये

है, ॥ ६--१२॥

१. भरतमुनिने रसनिष्पत्तिपर विचार किया, भारयोका भी विशद विवेचन किया, किंतु रसको ब्रह्मचैतन्यसे अभिन्न नहों कहा; इस

विषयमे वेदव्यासकौ वाणी ' अग्निपुरान यँ अधिक स्पष्ट हुईं ई । इन्होनि ब्रह्मके सहज आकम्दकौ अभिव्यक्तिकों ही " चैतन्य ', ' चमत्कार”

तथा 'रस' नाम दिया ह । वेदान्त-सूत्रकार बेदव्यासलफे समक्ष अवश्य ही "रसो वै सः ।'- यह आओौषनिषद वाणी भो रहौ है । भरतसूत्रके

व्याख्याकार आचार्य , जिनके मतका विशद विवेचन आचार्य मम्मटने अपनी पीयूषवर्षिणो याणौद्वारा ' कास्यप्रकाश' में

किया है, यह वेदान्तदृष्टि हौ अपनायी है, तथा 'रसो वै सः ' का प्रमाणरूपमें उल्लेख करके 'चिदावरणभद्गभ” या 'भग्रावरणा चित्‌ "को हौ

"रस्त" मात्रा है। भामहते महाकाण्यके लक्षणमें “युक्तं लोकस्वभावेन रवश्च सकते: पृथक्‌ ।'--यों लिखकर रसका योग तो स्वीकार किया है,

किंतु रसके भव्य स्थरूपका कोई चिवेचन नहीं किया है। अभिनवगुष, मम्मट तथा विश्वनाथने भौ व्यासद्वारा निर्दिष्ट स्वकूपको ही स्वोकार

किया है। ध्वनिवादी या ष्यञ्जनावादो सहदर्योनि रसके उक्त महामहिम स्वरूपको हौ आदर दिया तथा ' ब्रह्मास्वादसहोदर' कहकर उसकी

प्रतिष्ठा बदायी है।

२. इस कथनके उपजीव्य हैं--भरतमुनि। उन्होंने श्रृंगार, रौद्र, चीर और योभत्स रसोंसे क्रमशः हास्य, करुण, अद्भुत तथा भयानक

रेकौ उत्पत्ति मानौ है। यथा--

शृङ्गाराद्धि भवेद्धास्यो रौद्राच्च करुणो रसः । यौराच्चैयाद्धुतोत्पत्तिबों भत्साच्च भयानक: ॥ (गाटपक्ञास्त्र ६। ३९)

३. भरतमुनिने नाटयत्ास्त्रमें यह प्रश्न उठाया है कि “किं रसेभ्यो भावेध्यों रसाताम्‌।' (क्या रसोले भाजोंकों

अभिव्यक्ति होती है अथवा भावति रसॉंकी।) इसके उत्तरमें ये कहते हैं कि ' भावोंसे ही रसॉकी अभिव्यक्ति देखो जातौ है, रसोंसे भावोंको

नहीं।' रसके उद्धावक होनेके कारण ही ये ' भाव ' कहे जाते हैं। यह उत्तर हो अग्निषुराणकी उक्तियॉमें मुखरित हुआ है । “न भावहोनोऽस्ति

रसो न भावो रसवर्जित: ।'--यह उक्ति भौ नाट्यशास्त्रकों कारिकाका ही अंश है। (देखिये ६। ३६)।

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