वर्णन हो, उस रचनाको 'कलाप' कहते हैं। उसमें | सुन्दर उक्तियोंसे सम्पन्न ग्रन्थको कोष ' कहा गया
पूर्वानुराग” नामक श्रृद्धाररसकी प्रधानता होती | है। वह ब्रह्मकी भाँति अपरिच्छिन्न रससे युक्त
है। संस्कृत अथवा प्राकृतके द्वारा प्राप्ति आदिका | होता है तथा सहदय पुरुषोंको रुचिकर प्रतीत
वर्णन “विशेषक' कहलाता है। जहाँ अनेक | होता है। सर्ममें जो भिन्न-भिन्न छन्दोंकी रचना
श्लोकोंका एक साथ अन्वय हो, उसे 'कुलक' | होती है, वह आभासोपम शक्ति है। उसके दो
कहते हैं। उसीका नाम “संदानितक' भी है।| भेद हैं-'मिश्र' तथा “प्रकीर्ण'। जिसमें ' श्रव्य'
एक-एक श्लोककी स्वतन्त्र रचनाको मुक्तक ' | और 'अभिनेय'-दोनोंके लक्षण हों, वह “मिश्र”
कहते हैं। उसे सहदयोंके हृदयमें चमत्कार उत्पन्न | और सकल उक्तियोंसे युक्त काव्य “प्रकीर्ण!
करनेमें समर्थ होना चाहिये। श्रेष्ठ कवियोंकी | कहलाता है॥ ३३--३९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महाएराणमें “काव्य आदिके लक्षण” नामक
तीन सौ सीसकं अध्याय पृद्ध हुआ॥ ३३७॥
तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय
नाटक-निरूपण
अग्निदेव कहते हैं--वसिष्ठ! ` रूपक के | और स्थिति-ये उनके सामान्य लक्षण हैं; क्योंकि
सत्ताईस भेद माने गये हैः नाटक, प्रकरण, डिम, | इनका सर्वत्र उपसर्पण देखा जाता है। विशेष
ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण, वीथी, | लक्षण यथावसर बताया जायगा। यहाँ पहले
अङ्क, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्यक, कर्णा, | सामान्य लक्षण कहा जाता है; “नाटक'को धर्म,
दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, | अर्थ और कामका साधन माना गया है; क्योंकि
काव्य, श्रीगदित, नाट्ययासक, रासक, उद्लाप्य वह करण है। उसकी इतिकर्तव्यता (कार्यारम्भकी
तथा प्रेड़क्षण। लक्षण दो प्रकारके होते हैं- | विधि) यह है कि "पूर्वरङ्ग "का विधिवत् सम्पादन
सामान्य और विशेष। सामान्य लक्षण रूपकके | किया जाय। ' पूर्वरङ्ग *के नान्दी आदि वाईस अङ्गं
सभी भेदोंमें व्याप्त होते हैं और विशेष लक्षण | होते है" ॥ १-८॥
किसी-किसीमें दृष्टिगोचर होते है । रूपकके सभी | देवताओंको नमस्कार, गुरुजनकी प्रशस्ति तथा
भेदोंमें पूर्वरङ्गकेः निवृत्त हो जानेपर देश-काल, | गौ, ब्राह्मण ओर राजा आदिके आशीर्वाद " नान्दी"
रस, भाव, विभाव, अनुभाव, अभिनय, अङ्कं | कहलाते हैं। रूपकोमे ' नान्दीपाठ'के पश्चात् यह
भरतमुनिके नाटबशास्त्र (१८। २)-मे रूपक ' के दस भेद बताये गये है -- नाटक, प्रकरण, व्यायोग,
यौधो, प्रहसन्, दिप और ईहामृग। अग्निपुराणमें ये दस भेद तो मिलते हो हैं, सत्रह भेद और उपलब्ध होते हैं। इन्होंमें विलासिका
नाक एक भेद और जोड़कर विश्वताथने सब भेदोंकी सम्मिलित संख्या अट्ठाईस कर दौ है। उन्होंने प्रथम दस भेदको ' रूपक" और शेष
अठारह भेदाँकों 'उपरूपक' वल्लवा है। अग्निपुराणोक्त ' करणा ' नामक भेद “साहित्यदर्पण'में 'प्रकरणी 'के नामसे और ' भाणी' नामक भेद
*संलापक ' नामसे लिखा गया है।
२. "रगं ' कहते £~ ' रङ्गशाला ' या ' जृत्यस्थान 'को । वहाँ जो सम्भावित विध्न या उपद्रव हों, उनकी शान्तिके लिये सूत्रधार ओर चट
आदि जो 'नान्दीपाठ' और "स्तुति" आदि करने हैं, उसका नाम ' पूर्वाङ्ग ' है।
३. गाटयजशास्त्रके पचे अध्याय (९--१७ तकके श्लोकों)-में प्रत्याहार, अबतरण, आरम्भ, आश्चवणा, ववेत्रपोणि, परिषट्टना,
संघोटता, मार्गासारित, ज्वेष्ास्तरित, मध्यासारित, कनिष्ठासारित--ये ग्यारह ' बहिरगीत' कहे गये हैं, जो परदेके भीतर ही रहकर अभिनेता
आ प्रयोगकर्ता प्रयोगमें लाते हैं। तदनन्तर परदा उठाकर सब लोग एक स्थ गौतकौ योजना करते हैं। उसके गौतक, वर्द्धमात, ताण्डव,
जवाब परिवर्तन, नान्दी, शुष्कावकृष्टो, रङ्द्रर, चारी, महाचारी और प्ररोचना--थे ग्यारह अङ्ग हैं। इन बाईस अड्जोंका पूर्वरङ्गे प्रयोग
॥