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उत्तम श्रेणीका काव्य नहीं माना गया है॥ ७--२० ॥ | अन्तमें छन्द बदल देना उचित है। सर्ग अत्यन्त

चतुष्पदी नाम है- पद्यका [चार पादोंसे युक्त

होनेसे उसे “चतुष्पदी' कहते हैं]। उसके दो भेद

हैं, 'वृत्त' और “जाति । जो अक्षरोंकी गणनासे

जाना जाय, उसे "वृत्त' कहते हैं। यह भी दो

प्रकारका है-"उक्थ' (वैदिकस्तोत्र आदि) और

'कृतिशेषज' (लौकिक) । जहाँ मात्राओंद्वारा गणना

हो, वह पद्य 'जाति' कहलाता है। यह काश्यपका

मत है। वर्णोकी गणनाके अनुसार व्यवस्थित

छन्दको 'वृत्त' कहते हैं। पिङ्गलमुनिने वृत्तके तीन

भेद माने हैं,--सम, अर्धसम तथा विषम। जो

लोग गम्भीर काव्य-समुद्रके पार जाना चाहते हैं,

उनके लिये छन्दोविद्या नौकाके समान है। महाकाव्य,

कलाप, पर्यायबन्ध, विशेषक, कुलक, मुक्तक

तथा कोष--ये सभी पद्योंके समुदाय हैं। अनेक

सर्गों रचा हुआ संस्कृतभाषाद्वारा निर्मित काव्य

“महाकाव्य' कहलाता है ॥ २१--२३॥

सर्गबद्ध रचनाको, जो संस्कृत भाषामें अथवा

विशुद्ध एवं परिमार्जित भाषामें लिखी गयी हो,

"महाकाव्य ' कहते हैं। महाकाव्यके स्वरूपका

त्याग न करते हुए उसके समान अन्य रचना भी

हो तो वह दूषित नहीं मानी जाती । ' महाकान्य '

इतिहासकी कथाको लेकर निर्मित होता है अथवा

उसके अतिरिक्त किसी उत्तम आधारको लेकर

भी उसकी अवतारणा की जाती है। उसमें

यथास्थान गुप्तमन्त्रणा, दूतप्रेषण', अभियान और

युद्ध आदिके वर्णनका समावेश होता है। वह

अधिक विस्तृत नहीं होता। शक्वरी, अतिजगती,

अतिशक्तरी, त्रिष्टप्‌ और पुष्पिताग्रा आदि तथा

वक्त्र आदि मनोहर एवं समवृत्तवाले छन्‍्दोंमें

महाकाव्यकी रचना की जाती है। प्रत्येक सर्गके

संक्षित नहीं होना चाहिये। 'अतिशक्वरी' और

'अष्टि'--इन दो छन्दोंसे एक सर्ग संकीर्णं होना

चाहिये तथा दूसरा सर्ग मात्रिक उन्दोंसे संकीर्णं

होना चाहिये। अगला सर्ग पूर्वसर्गकी अपेक्षा

अधिकाधिक उत्तम होना चाहिये । ' कल्प ' अत्यन्त

निन्दित माना गया है । उसमें सत्पुरुषोंका विशेष

आदर नहीं होता। नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु,

चन्द्रमा, सूर्य, आश्रम, वृक्ष, उद्यान, जलक्रीडा,

मधुपान, सुरतोत्सव, दूती-वचन-विन्यास तथा

कुलटाके चरित्र आदि अद्भुत वर्णनोसे महाकाव्य

पूर्ण होता है । अन्धकार, वायु तथा रतिको व्यक्त

करनेवाले अन्य उद्दीपन-विभावोंसे भी वह अलंकृत

होता है। उसमें सब प्रकारकी वृत्तियोंकी

परवृत्ति होती है। वह सब प्रकारके भावोंसे

प्रभावित होता है तथा सब प्रकारकी रीतियों तथा

सभी रसोंसे उसका संस्पर्शं होता है । सभी गुणों

और अलंकारोसे भी महाकाव्यको परिपुष्ट किया

जाता है। इन सब विशेषताओंके कारण ही उस

रचनाको “महाकाव्य कहते हैं तथा उसका

निर्माता "महाकवि" कहलाता है ॥ २४-३२॥

महाकाव्ये उक्ति-वैचित्रयकी प्रधानता होते

हुए भी रस हौ उसका जीवन है । उसकी स्वरूप-

सिद्धि अपृथग्यलसे (अर्थात्‌ सहजभावसे) साध्य

वाग्वक्रिमा (वचनवैचित्रय अथवा वक्रोक्ति) -

विषयक रससे होती है । महाकाव्यका फल है-

चारों पुरुषार्थोकी प्रापति"। वह नायकके नामसे ही

सर्वत्र विख्यात होता है। प्रायः समान छन्दो

अथवा वृत्तये महाकाव्यका निर्वाह किया जाता

है। कौशिकौ वृत्तिकी प्रधानता होनेसे काव्य-

प्रबन्धे कोमलता आती है । जिसमें प्रवासका

१, "पद्यं चतुष्पदो तच्च वृत्तं जातिरिति ट्विधा।'--यह पद्चांश दण्डीने अपने 'काव्यादर्श'में ज्यों-का-त्यों ले लिया है।

२. धामहे अधिपुशणके " सगंबन्धे महाक्यम्‌'-- इस उक्तिको अधिकलमूपसे उद्धत करके दौ महाकाव्यके लक्षणक् विस्तार किया है ।

३. भामहने भौ 'मन्त्रदूतप्रयाणादि'--इस आनुपूरवीका अपने महाकाव्य-लक्षणमें उपयोग किया है ।

चतुर्वणफलप्राधिः'- इख अंशको परवती साहित्याल्तेचकोनि अग्निपुराणके इस कथतसे हौ लिया है ।

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