मिश्र'। पादविभागसे रहित पदोंका प्रवाह “गद्य
कहलाता है। वह भी चूर्णक, उत्कलिका और
वृत्तगन्धि भेदसे तीन प्रकारका होता है'। छोटी-
छोटी कोमल पदावलीसे युक्त और अत्यन्त मृदु
संदर्भसे पूर्ण गद्यको 'चूर्णक' कहते हैं। जिसमें
बड़े-बड़े समासयुक्त पद हों, उसका नाम
“उत्कलिका' है'। जो मध्यम श्रेणीके संदर्भसे
युक्त हो तथा जिसका विग्रह अत्यन्त कुत्सित
(क्लिष्ट) न हो, जिसमें पद्यकी छायाका आभास
मिलता हो--जिसकी पदावली किसी पद्य या
छन्दके खण्ड-सी जान पड़े, उस गद्यको “वृत्तगन्धि!
कहते हैं। यह सुननेमें अधिक उत्कट नहीं होता*।
गद्य-काव्यके पाँच भेद माने जाते हैं--आख्यायिका,
कथा, खण्डकथा, परिकथा एवं कथानिका । जहाँ
गद्यके द्वारा विस्तारपूर्वक ग्रन्थ-निर्माता कविके
वंशकी प्रशंसा की गयी हो, जिसमें कन्याहरण,
संग्राम, विप्रलप्भ (वियोग) ओर विपत्ति (मरणादि)
प्रसर्का वर्णन हो, जहाँ वैदभीं आदि रीतियों
तथा भारती आदि वृत्तिर्योकी प्रवृत्तियोंपर विशेषरूपसे
प्रकाश पड़ता हो, जिसमें "उच्छास 'के नामसे
परिच्छेद (खण्ड) किये गये हों, जो ' चूर्णक
नामक गद्यरौलीके कारण अधिक उत्कृष्ट जान
पड़ती हो, अथवा जिसमें * वक्त्र या ' अपरवक्तर'
आख्यायिका" है (जैसे ` कादम्बरी ' आदि) ।
जिस काव्यम कवि श्लोको्रारा संक्षेपसे अपने
वंशका गुणगान करता हो, जिसमें मुख्य अर्थको
उपस्थित करनेके लिये कथान्तरका संनिवेश
किया गया हो, जहाँ परिच्छेद हो ही नहीं, अथवा
यदि हो भी तो कहीं लम्बकोंद्वारा ही हो, उसका
नाम “कथा' है (जैसे 'कथा-सरित्सागर' आदि) ।
उसके मध्यभागमें चतुष्पदी (पद्य) हारा बन्ध-
रचना करे। जिसमें कथा खण्डमात्र हो, उसे
"खण्डकथा" कहते हैं। खण्डकथा और परिकथा-
इन दोनों प्रकारकी कथाओंमें मन्त्री, सार्थवाह
(वैश्य) अथवा ब्राह्मणको ही नायक मानते हैं।
उन दोनोंका ही प्रधान रस “करुण' जानना
चाहिये । उसमें चार प्रकारका ' विप्रलम्भ (विरह)
वर्णित होता है । (प्रवास, शाप, मान एवं करुण-
भेदसे विप्रलम्भके चार प्रकार हो जाते हैं।) उन
दोनॉमें ही ग्रन्थके भीतर कथाकी समाति नहीं
होती। अथवा *खण्डकथा' कथाशैलीका ही
अनुसरण करती है। कथा एवं आख्यायिका
दोनोकि लक्षणोकि मेलसे जो कथावस्तु प्रस्तुत
होती है, उसे ' परिकथा" नाम दिया गया है।
जिसमें आरम्भर्मे भयानक, मध्यमे करुण तथा
अन्तमं अद्भुत रसको प्रकट करनेवाली रचना
नामक _छन्दका प्रयोग हुआ हो, उसका नाम | होती है, वह “कथानिका' (कहानी) है । उसे छन्दका प्रयोग हुआ हो, उसका नाम | होती है, वह “ कथानिका" (कहानी) है। उसे
१. भामहने काच्यके दो भेद बताये हैं--गद्य और पद्य । फिर भाषाकी दृष्टिसे इनके तोन-तीन भेद और होते है - संस्कृत, प्राकृत और
अपभ्रंश। वामनने “काव्य गध्य॑ पं च ' (३--२१)-इस सूत्रके द्वारा काव्यके गद्य और प्य दो ही मूलभेद माने हैं। दण्डीने अपने
*काव्यादर्श' में अग्विपुराणकथित गद्य, पञ्च और मिश्र--तौतों भेदको उद्धृत किया है। भाषाकी दृष्टिसे भी उन्होने काव्यके चार भेद माने
है संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र। अग्निपुराणमें जो 'पादसंतानों गधम्।'--इस प्रकार गछका लक्षण किया है, दण्डीने अपने
"काव्याद ' में इसे अधिकलरूपसे उद्धुत किया है।
२. आचार्य बामनते भौ अग्विपुराणोक्त इह तोन गद्यभेदोंका उल्लेख किया है। यथा-' गद्य वृत्तगन्धि चूर्णमुत्कलिकाप्राय॑ च ।'
३. इसी भावकों छाया लेकर वामननै १।३ के २४-२५ वे सूत्रोंका निमांण किया है-' अनाविद्धललितपदं चूर्णम्'#॥ २४॥
*विषरीदमुत्कलिक्छाप्रयम् ' ॥ २५॥
४. घामगने जिसमें किसी पद्यका भाग प्रतीत होता हो, ऐसे गद्यको "वृत्तगन्धि ' कहा है। यधा--' पद्चभाषवटूत्तान्धि' & १।३।२३॥
साहित्यदर्पणकारने भी “वृत्तभागयुतम' कहकर इसी भावको पुष्टि कौ हैं। वामत्र और विश्वनाथ--दोनों हौ स्पष्टतः अग्निपुराणके
छायाग्राही हैं।
५. चिश्वनाषने 'साहित्यदर्षण ' के छठे परिच्छेदमें 'कथा' और ' आझ्यायिका ' की चर्चा की है। उन्होंने गद्य-पद्यमय कोच्योके तीन
भेद माने हैं-“-चम्पू, विस्द और करम्भक।!