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संसारम मनुष्य-जीवन दुर्लभ है; उसमें भी विद्या | इसके दो भेद रहैँ--' सुबन्त" और "तिङन्त" ।

तो और भी दुर्लभ है। विद्या होनेपर भी | अभीष्ट अर्थसे व्यवच्छिन्न संक्षिप्त पदावलीका नाम

कवित्वका गुण आना कठिन है; उसमें भी | " वाक्य' है ॥ १--६॥

काव्य-रचनाकी पूर्णं शक्तिका होना अत्यन्त कठिन | जिसमें अलंकार भासित होता हो, गुण

है । शक्तिके साथ बोध एवं प्रतिभा हो, यह और | विद्यमान हो तथा दोषका अभाव हो, ऐसे

भी कठिन है; इन सबके होते हुए विवेकका | वाक्यको “काव्य” कहते है । लोक-व्यवहार तथा

होना तो परम दुर्लभ है । कोई भी शस्त्र क्यो न | वेद (शस्त्र) -का ज्ञान- ये काव्यप्रतिभाकी योनिः

हो, अविद्वान्‌ पुरुषोंके द्वारा उसका अनुसंधान | हैँ । सिद्ध किये मन्त्रके प्रभावसे जो काव्य निर्मित

किया जाय तो उससे कुछ भी सिद्ध नहीं | होता है, बह अयोनिज है † देवता आदिके लिये

होताः। “श ' आदि वर्ण, अर्थात्‌ “श ष सं ह" तथा | संस्कृत भाषाको और मनुष्योकि लिये तीन प्रकारकी

वगेकि द्वितीय एवं चतुर्थ अक्षर ' महाप्राण ' | प्राकृत भाषाका प्रयोग करना चाहिये। काव्य

कहलाते हैः । वणोकि समुदायको ' पद ' कहते है । | आदि तीन प्रकारके होते है- गद्य, पद्य ओर

"प्रभुसम्मिशब्दप्रधानयेदादिशास्वेभ्वः, सुदत्सम्मितार्थतात्पर्यवत्पुराणादीतिहासेभ्यक्ष, शब्दार्थयोर्ुनभावेन रसाङ्गं भूत्व्यापारप्रवजणतया

विलक्षणं यत्‌ काव्यं लोकोत्तरवर्णनानिपुणकविकर्म, तत्‌ कान्तेव सरसतापादनेनाभिमुखीकृत्य रामादियद्टर्तितव्यं न रावणादिषदित्युपदेश च

यथायोगं कवेः सहृदयानां च करोतीति ।' ( काव्यप्रकाश-१ उल्लास)

१, साहित्वदर्पणकार विश्वकाधने अपने ग्रन्थके प्रथम परिच्छेदमें 'काव्यस्पोपादेयत्वमग्निपुराणेउप्युक्तमू।-यह लिखकर ' नरत्वं

दुर्लभं लोके ' इत्यादि श्लोककों पूर्णतः उद्धव किया है ।

२. भामहपर भी अग्निपुराणकी इन उक्तियोंका प्रभाव पड़ा है । उनका कहना है कि " गुरुके उपदेशसे जडबुद्धि मनुष्य भौ शास्त्रका

अध्ययन तो कर लेते हैं, परंतु काव्य करनेको शक्ति किसी जिरले हौ प्रतिभाशाली पुरुषमें होती है।' इस कथने ' शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा 'की

स्पष्टतः छाप है। भामहका श्लोक इस प्रकार है--

गुरूपदेशादध्येतुं शास्त्र॑ जड़पियोउप्यलम्‌।

काव्यं तु जायते जातु कस्यचित्‌ प्रतिभावतः ॥

३. यह एक स्लोकका भाव शिक्षासे सम्बद्ध है । जान पड़ता है, लेखकके प्रमादसे उसका फट इस अध्यायमें समाविष्ट हो गया है ।

४. अग्निपुराणकी इसी उक्तिको उपजीव्य सानकर भोजदेवने “सरस्वतीकषण्ठाभरण'में इस प्रकार लिखा है--

निर्दोष गुणवत्काव्यमलंकरैरल॑कृतम्‌। (१।२)

५. भामहने इसी कथनको कुछ पद्नषित करके लिखा है कि 'व्याकरण', छन्द्‌, कोष, अर्थ, इतिहालाब्रित कथाएँ, लोकप्यवहार,

युदि (तर्क) तथा कलाओंका काव्य -रचन्रे प्रवृत्त होनेवाले कविजनोंकों मनन करना चाहिये। यथा--

शब्दश्छन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रया: कथा: । लोको युक्तिः कलाक्षेति मन्तव्या काव्यगैहांमी #

अन्निपुराणके 'वेदक्ष लोकक' इस अंशको ही भामहने विशद किया है। आचार्य वामनने काव्याज्॒की संज्ञा देकर काव्यरचनाके

तीन हेतुओंका उज़ेख किया है--लोक, विद्या और प्रकोर्ण। लोक से उन्होंने 'लोकवृत्त' लिया है। 'विधा' शब्दसे शब्दस्मृति

(व्याकरण), शब्दकोष, छन्दोविचिति, कलाशास्त्र, कामशास्त्र तथा दण्डनीति आदिका ग्रहण किया है तथा "प्रकीर्ण" शब्दसे

प्रतिभा ओरं अवधान (चित्तकी एकाक) -को लिया है। यथा-(काव्यालंकारसूऋख्ये ग्रन्थे प्रथपेऽधिकरणे तृतीयाध्याये)--'लोको

विद्या एको च काच्याङ्खानि' ॥ १॥ * लोकवृत्तं लोक:'॥२॥ *

विद्या: '॥ ३ ॥ " लकष्य्त्वमभियोगो वृद्धसेवावेक्षण॑ प्रतिभानमवधान॑ च प्रकीर्णम्‌ ' ॥ ११॥ इसी प्रकार आचार्य मम्मटने शक्ति (प्रतिभा)-को

तथा लोकपृत्त, व्याकरणादिशाल्र तथा पूर्यवर्ती कवियोंके काम्य आंदिके अबलोकनसे प्राप्त हुई व्युत्पत्तिकों काण्यका हेतु बताया है । ' साथ

हो काव्यवेताओंकी शिक्षाके अनुसार किया जानेवाला अभ्यास भी काव्यनिर्माणमें हेतु होता है, ' यह उनका कथन है। अन्यान्य पर्वती

आचार्योनि भी काव्यके इन हेतुऑपर विचार किया है। इन सबके मतोपर आग्निपुराणके ' वेदश्च लोकश्च" इस कथनका ही प्रभाव

परिलक्षित होता है।

६. मन्रसिद्धिसे भी अद्भुत काव्य-रचनाकौ शक्तिका उदय होता है, इसको चर्चा रसगंड्राधरकारने भी कौ हैं। 'तैषध' महाकाव्यके

रचयिता त्रौहर्षती भौ अपने काव्ये चिन्तापणिबीजकी उपासनासे अकस्मात्‌ श्लोक-रचनाकौ शिका आविर्भाव होना बताया है।

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