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गुरु हों तथा पाँच-पाँच, आठ और सातपर विराम | है। [यह भी “उत्कृति'में ही है] ॥२६--२८॥

होता हो, उस छन्दका नाम ' क्रौञ्चपदा ^ है। [यह | [अब “दण्डक' जातिका वर्णन किया जाता

*अभिकृति'के अन्तर्गत है।] जिसके प्रतिपादमें | है--] जिसके प्रत्येक चरणमें दो नगण और सात

दो मगण, तगण, तीन नगण, रगण, सगण, एक | रगण हों, उसका नाम 'दण्डक" है; इसीको

लघु और एक गुरु हों तथा आठ, ग्यारह और [“चण्डवृष्टिप्रपात' भी कहते हैं। (इसमें पादान्तं

सातपर विराम होता हो, उस छन्दको | विराम होता है।] उक्त छन्द दो नगणके सिवा

^ कहते हैं। [यह 'उत्कृति' | रगणमें वृद्धि करनेपर “व्याल', 'जीमूत' आदि

छन्दके अन्तर्गत है।] जिसके प्रत्येक पाद्मे एक | नामवाले 'दण्डक' बनते हैं। ' चण्डप्रपात के बाद

मगण, छः नगण, एक सगण और दो गुरु हों तथा | अन्य जितने भी भेद होते हैं, वे सभी दण्डक-

नौ, छ:-छ: एवं पाँच अक्षरॉपर विराम होता हो, | प्रस्तार 'प्रचित" कहलाते हैं। अब “गाथा-

उसको 'अपहाब"' या 'उपहाव' नाम दिया गया | प्रस्तार "का वर्णन करते हैं॥२९-३०॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'समवृत्तनिरूपण” नामक

तीन सौ चाँतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ# ३३४॥

(^~

तीन सौ पैंतीसवाँ अध्याय

प्रस्तार-निरूपण

अग्निदेव कहते है-- वसिष्ठ ! इस छन्दःशास्त्र | आदिगुरु हो, उसके नीचे लघुका उल्लेख करे ।

जिन छन्दोका नामतः निर्देश नहीं किया गया है, | [यह “एकाक्षर प्रस्तार 'की बात हुई । “द्वधक्षर-

किंतु जो प्रयोगमें देखे जाते हैं, वे सभी “गाथा' | प्रस्तार ^] उसके बाद इसी क्रमसे वर्णोकी

नामक छन्दके अन्तर्गत हैँ । अब ' प्रस्तार ' बतलाते | स्थापना करे, अर्थात्‌ पहले गुरु और उसके नीचे

है । जिसमें सब अक्षर गुरु हों, ऐसे पाद्मे जो | लघु^॥ १॥

१. या कपिलाक्षी पिङ्गलकेशी कलिरुचिरवुदिनमनुनयकटिवा दीर्घतराधि: 'परियृतयपुरतिशयकुटिलगति: ।

०५ ->+७ निप्नकपोला लघुतरकुचयुगपरिचितहृदया सा परिहायया क्रौक्षपदा स्वर ध्रवपिह नि स ...-3०:43»34>- यकीन |]

२ धृतायुधाः ।

३. श्रोकण्ठं

सर्वज्ञं वृषभगमनमहिपतिकृतवलयरूधिरकरमाराध्य॑ त॑ वन्दे भवभवधिदमभिपतफलवित्तरणगुरुमुमया युक्तम्‌ ॥

४. दण्डकका उदाहरनः -

इह हि भवति दण्डकारण्यदेशे स्थितिः पुण्यभाजां मुनीनां मनोहारिणौ त्रिदशविजविवोयं दृष्यद॒शग्रीयलक्ष्मीविरामेण रामेन संसेविते ।

जजकयजनभूभिसम्भूतसीपन्तिनौसीमसीक्तपदस्पर्शपूता श्रये भुवननिपितपादपद्ाभिवाकाभ्बिकातीर्थयाक्ागतानेकसिद्धाकुते

संनद्धानेकानीकैन॑रतुरगकरिपरियृते: समं युद्धश्रद्धालुख्थात्मावस्त्वदधिपुखमपगतभियः

ये त्वां दृष्टा संग्रामाग्रे तृूपतिबर कृपणमनसक्चलन्ति दिगन्तरं छं वा सों राक्यन्ते कै्बहुभिरपि सविषविषमं भुजंगविजृम्भितम्‌॥

त्रिपुरदहनममृतकि रणशशकलललितशिरस रद्र भूतेशं हृतमुतरिपखमण्िलभुखननमितचरणयुगमौलानम्‌

५. प्रचित दण्डकका उदाहरणः -

"गनी प्रफताभिधानो मुनेः पिङ्गल्वचार्नाप्रोमतः प्रचित इति ततः परं दण्डक्छनाभियं जातिरिकैकरेफाभिवृद्धणा

भवेत्‌

' स्वरुचिविरचितसंज्ञया तद्विशेषैरज्षेपे: पुत्र: काव्यमत्थेडपि कुर्वन्तु वाग धराः ।

भवति यदि समानसंख्याक्षरर्यत्र पादष्यवस्था ततो दण्डकः पूज्यतेऽसौ जनैः॥#

६. किस छन्दके कितने भेद हो सकते हैं, इसका ज्ञान करानेवाले प्रत्यय या प्रणालीकों 'प्रस्तार' आदि कहते है । परस्ता आदि छः हैं--

प्रस्तार, नष्ट, उदि, एकद्रयादिलगक्रिवा, संख्या तथा अध्ययोग। एक अक्षरवाले छन्‍्दका भेद जाननेके लिये पहले एक गुरु लिखकर

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