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पादमें अन्तिम दो वर्ण क्रमश: गुरु-लघु होते हैं.

उसे “समानी”' नाम दिया गया है। जिसके चारों

चरणोंके अन्तिम वर्ण क्रमश: लघु और गुरु हों,

उसकी “प्रमाणी” संज्ञा है। इन दोनोंसे भिन

स्थितिवाला छन्द “वितान" कहलाता है। [इसके

अन्तिम दो वर्ण केवल लघु अथवा केवल गुरु भी

हो सकते हैं।] यहाँसे तीन अध्यायोंतक 'पादस्य'

इस पदका अधिकार है तथा " पदचतुरू्ध्वं ' छन्दके

पहलेतक ' अनुष्ठुब्‌वक्त्रम्‌ 'का अधिकार है। तात्पर्य

यह कि आगे बताये जानेवाले कुछ अनुष्टुप्‌ छन्द

“वबकत्र' संज्ञा धारण करते हैं। 'वक्‍त्र' जातिके

छन्दमें पादके प्रथम अक्षरके पश्चात्‌ सगण ( ।5)

और नगण ( ।।।) नहीं प्रयुक्त होने चाहिये। इन

दोनोंके अतिरिक्त मगण आदि छः गणोंमेंसे किसी

एक गणका प्रयोग हो सकता है। पादके चौथे

अक्षरके बाद भगण (5 ।)-का प्रयोग करना

उचित है ^ जिस “ वक्त्र" जातिके छन्दमें द्वितीय

और चतुर्थं पादके चौथे अक्षरके बाद जगण

(।3।)-का प्रयोग हो, उसे ' पथ्या वक्त्र ^ कहते

है । किसी-किसीके मते इसके विपरीत न्यास

करनेसे, अर्थात्‌ प्रथम एवं तृतीय पादके बाद जगण

१. समानीका उदाहरन -

(।5।) -का प्रयोग करनेसे ' पथ्या ^” संज्ञा होती है ।

जब विषम पादोंके चतुर्थं अक्षरके बाद नगण

८ ।।।) हों तथा सम पादोंमें चतुर्थं अक्षरके बाद

यगण (।55)-की ही स्थिति हो तो उस

" अनुष्टुबूवक्तर का नाम “चपला होता है । जब

सम पादोंमें सातवाँ अक्षर लघु हो, अर्थात्‌ चौथे

अक्षरके बाद जगण (। ऽ।) हो तो उसका नाम

“विपुला" होता है। [यहाँ सम पादोंमें तो सप्तम

लघु होगा ही, विषम पादोंमें भी यगणको

बाधितकर अन्य गण हो सकते हैं--यही 'विपुला'

और “पथ्या'का भेद है।] सैतव आचार्यके मतमें

विपुलाके सम और विषम सभी पादोंमें सातवाँ

अक्षर लघु होना चाहिये। जब प्रथम और तृतीय

पादोंमें चतुर्थ अक्षरके बाद यगणको बाध कर

विकल्पसे भगण (5।।), रगण (5। ऽ), नगण

(॥॥।) ओर तगण (55 |) आदि हों तो "विपुला"

छन्द होता है।

इस प्रकार * विपुला" अनेक प्रकारकी होती

है । यहाँतक " वक्त्र जातिके छन्दोका वर्णन किया

गया। अनुष्टुप्‌ छन्दके प्रथम पादके पश्चात्‌ जब

प्रत्येक चरणमें क्रमशः चार-चार अक्षर बढ़ते

खासवोऽपि षिक्रमेण यत्समानतां न याति । तस्य॒ खल्लभेश्वरस्य केन तुल्यता क्रियेत #

ॐ नमो जनार्दनाय पापसंघमोचनाय । दुष्टरैत्यमर्दगाव पुण्डरीकलोचनाय ४

२. प्रमाणीका उदाहरण -

सरोजयोनिरम्बे रसातले तथाच्युतः । तव प्रयाणमीक्षितुं क्षमा न त्तौ बभूवतुः #

३. विताकका उदाहरण -

तृष्णां त्यजे धम भज पापे इदयं मा कुर । इष्टा यदि लक्ष्मीस्तव रशिष्टामनिशं संश्रय #

इदयं यस्य॒ विशाल गगनायोगसम्बनम्‌ । लभतेऽसौ मणिचित्र॑ तृपतिमूर्ध्वि वितानम्‌ 8

नवधारम्मुसंसिक्तं वसुधागन्धिनिः किंचिदुननतघोणाग्रं महौ कामयते वक्त्रम्‌ ॥

५. दुभाषितेऽपि सौभाग्यं प्रायः प्रकुरुते प्रीति: । म्दतुर्मनो हरन्त्वेव दौलांलित्योक्तिपिवाला: ॥

६. उदाहरण - चित्यं नीतिनिषण्णस्य रायो राष्ट न सीदति । न हि पथ्याशिनः काये जायन्ते च्याधियेदनाः ॥

७. उदाहरण--भर्तुराज्ञनुवर्तिनी या स्त्री स्यात्‌ स्व स्थिरा लक्ष्मी: । स्वप्रभुत्वाभिस्तनिनी विपरीता परित्याच्वा ॥

बक्त्रनिर्मासनासाग्रा

८. उदाहरण ~

॥ कन्यका वाक्यचपला लभते धू्त॑सौ ग्यम्‌ ॥

९. उदाहरण --सैतवेन यथार्णवं तोर्णो दशरथात्मजः । रक्ष:क्षयकरी पुनः प्रतिज्ञ स्वेन॒ बाहुना ॥

१०. यगणके द्वारा उदाहरण--

यं सखे चन्द्रमुखो स्मितज्योत्स्ा च मानिनो । इन्दीवराक्षी इदयं दंदहीति तथापि मे॥

इसी प्रकार अन्य भौ बहुत-से उदाहरण हो सकते है । ' विपुला ' छन्दके पादाँका चौथा अक्षर प्रायः गुरु ही होता है ।

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