पादका विराम होता है, उसे पथ्या" माना गया
है ^ ॥ ५--८॥
जिस आयकि पूर्वार्धमें या उत्तरार्धमें अथबा
दोनोंमें तीन गणोंपर पादविराम नहीं होता, उसका
नाम “विपुला' होता है। [इस प्रकार इसके तीन
भेद होते हैं-१-आदिविपुला, २-अन्त्यविपुला
तथा ३-उभयविपुला। इनमें पहलीका नाम ' मुख-
विपुला" दूसरीका 'जघनविपुला' तथा तीसरीका
महाविपुला' है।] इनके उदाहरण क्रमशः इस
प्रकार हैं--
नीवीविमोचनव्याजकथितजघना जघनविपुला ॥
- पहले पद्यमें पूर्वार्धमें, दूसरेमें उत्तरार्धं
तथा तीसरे दोनों जगह पाद-विराम तीन गणोंसे
आगे होता है † जिस आर्या-छन्दमे द्वितीय तथा
चतुर्थं गण गुरु अक्षरोंके बीचमें होनेके साथ ही
जगण अर्थात् मध्यगुरु (। ऽ।) हों, उसका नाम
"चपला" है । तात्पर्य यह है कि चपला" नामक
आर्यामें प्रथम गण अन्त्यगुर् (। 5), तृतीय गण
दो गुरु (35) तथा पञ्चम गण आदिगुरु (5।।)
होता है। शेष गण पूर्ववत् रहते ह । पूर्वार्धमें
“चपला'का लक्षण हो तो उस आर्याका नाम
"मुखचपला" होता है । परार्धे चपलाका लक्षण
होनेपर उसे 'जघनचपला " कहते हैं। पूर्वार्धं ओर
परार्ध-दोनोंमें चपलाका लक्षण संघटित होता हो
३- या स्वी कुचकलशनितग्यमण्डले जायते महाविपुला। | तो उसका नाम " महाचपला^ है । जहाँ आयकि
१. पथ्यारी व्यायामी स्त्रीषु जिकतत्मा नरो न रोगी स्यात् । यदि यचसा मनसा या दुद्यति नित्यं न भूतेभ्यः ४
२. "पथ्या" और ' विपुला "य सहानवस्थारूप विरोध है; अतः ये दोनों छन्द एक स्वथ नहीं रह सकते। यदि एक अंशमें भी
*विपुला' का लक्षण संघटित हुआ तो उसका पष्यात्य नष्ट हो जाता है; क्योंकि ' विपुला" छन्द उभयाश्रय है; वह पूर्वार्धमें, उत्तरार्धे तथा
दोनोंमें भौ रह सकता है। अब ' विपुला ' का जहाँ अंश भी हो, वहाँ ' पथ्या" का प्रयेश नहीं हो सकता । ' पथ्या छन्द एक अंशसे भौ विकल
हो जाय तो यहीं ' यिपुला " का विषय होता है; अतः वहाँ " विपुला ' की प्राप्ति अनिवार्य है । " पथ्या' और ' चपला में कोई विरोध नहीं है;
अतः इनमें बाध्य-बाधकभाव नहीं होता । इस विषयका संक्षिप्त संग्रह नोचे लिखे श्लोके है -
एकैव भवति पथ्या विपुलास्तिखस्ततश्षतत्नस्ता: । चपलाभेदैखिभिरपि भिन्ना इति षोडशार्याः स्युः ॥
मोतिचतुष्टयमित्थं
प्रत्येक षोडशप्रकारं॑ स्यात् । स्वकल्येनार्याणामशौतिरेवं
"एक 'पथ्या', तीन "विपुला", कुल चार भेद हुए। इनमेंसे प्रत्येक छन्द 'चपला 'के तीन भेदोंसे भिन्न
*। स्युः |,
ऋाहर प्रकारका होता है ।
आरह ये और चार पहलेके - यों सोलह हुए । इत्र सोलहोंके " गीति" आदि चार भेदोारा भेद होनेसे चौंसठ भेद होते है । पहलेके सोलह
ओर चौसठ - कुल अस्सी हुए। इस प्रकार ' आर्या के अस्सौ भेद हैं।'
३. पथ्यापूर्वक मुलचपलाका उदाहरण --
अतिदारुणा द्विजिद्धा पस्य रन्ध्रानुसारिणी कुटिला। दूरात्परिहरणीया नारौ नागीव मुखचपला ॥
मुखचपलाका उदाहरण -
यस्याश्च लोचने पिङ्गले भ्रुवौ संगते मुखं दीर्म्। बरिपुलोन्नताश्ष दन्ताः कान्तासौ भवति मुखचपला ॥
उभयविपुलापूर्वक मुख- चपलाका उदाहरण -
बिफुलाभिजातय॑शोद्धवापि
रूपातिरिकरम्थापि । जिस्सार्यते गृहाद् वललभाषि यदि भवति मुखचपला ॥
४. पथ्यापूर्वक जघनचपलाका उदाहरण ~
यत्पदस्य कचिष्ठा च स्पृशति महीसत्राभिका वाप । सा सर्व॑घूर्तओोग्या भवेदवश्य॑ जषनचपला ॥
जषनचपलाको उदाहरण ~
चस्याः पादाङ्गुष्ठं व्यतीत्य याति प्रदेशिनी दीर्घा । विपुले कले प्रसूतापि सा धरुवं जपनचपला स्यात् ॥
'मकरध्वजसदनि दृश्यते स्फुर त यस्याः । विपुलान्वयाभिजातापि जायते जघनचपलासौ॥
५
विपुलापूर्वक महाचफ्लाका उदाहरण -
पथ्यापूर्वक महाचपलाका उदाहरण -
हृदयं हरन्ति नार्यो सुतैरपि भ्रृकराक्षविश्षेपै:। दोर्मूलवाभिदेशं निदर्शयन्त्यो महाचपलाः ॥
चिबुके कपोलदशेऽधि कूपिका दृश्वते स्मिते यस्याः । विपुलान्ययप्रसूलापि जयते सा महाचपला ॥