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लिये ऋग्वेदमें-“तं त्वा वयं पितो वचोभिर्गावो
न हव्या सुषूदिम । देवेभ्यस्त्वा सधमादमस्मभ्यं त्वा
सधमादम् ' ॥ ' (१। १८७। ११) ] जहाँ पहले दस
अक्षरके दो चरण हों, फिर आठ अक्षरोकि दो
चरण हों, उसे भी " बृहती ' छन्द कहते हैं। [जैसे
सामवेदमें-' अग्रे विवस्वदुषसश्ित्रं राधो अमर्त्यं ।
आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥'
(४०) ] केवल " जगती ' छन्दके तीन चरण हों तो
उसे "महाबृहती ' कहते है । [जैसे ऋग्वेदमें--
"अजीजनो अमृत मर्त्येष्वा, ऋतस्य धर्मन-
मृतस्य चारुणः। सदासरो वाजमच्छसनिष्यदत् '
(९।११०। ४) ] ताण्डी नामक आचार्यके मतमें यही
"सतो बृहती ' नामक छन्द है॥५--१०१३६॥
जहाँ दो पाद बारह-बारह अक्षरोंक और
दो आठ-आठ अक्षरोंके हों, वहाँ 'पद्धि' नामक
छन्द होता है। यदि विषम पाद अर्थात् प्रथम ओर
तृतीय चरण पूर्वकथनानुसार बारह- बारह अक्षरोकि
हों और शेष दोनों आठ-आठ अक्षरोके तो उसे
"सतःपङ्कि' नामक छन्द कहते हैं। [जैसे
ऋग्वेदमें --'यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठ
हव्यवाहन । यं कण्वो मेध्यातिधिर्धनस्पृतं यं वृषा
यमुपस्तुतः ॥' (१।३६।१०)] यदि वे ही चरण
विपरीत अवस्थामें हों, अर्थात् प्रथम-तृतीय चरण
आठ-आठ अक्षरोकि और द्वितीय- चतुर्थं बारह-
बारह अक्षरोके तो भी वह छन्द " सतःपङ्कि' ही
कहलाता है । [ जैसे ऋवेदमे -“ य ऋषये श्राववत्सखा
विश्वेत् स वेद जनिमा पुरुष्टुतः। तं विश्वे मानुषा
युगे, इनदरं हवन्ते तविषं यतासुचः ॥' (८।४६। १२) ]
जब पहलेके दोनों चरण बारह- बारह अक्षरोंके
प्रस्तारपङ्कि' कहते है । [ ग्यारहवें श्लोके बताये
“पङ्कि' छन्दके लक्षणसे ही यह गतार्थ हो
जाता है, तथापि विशेष संज्ञा देनेके लिये यहाँ
पुनः उपादान किया गया है। मन्त्र-ब्राह्मणमें
इसका उदाहरण इस प्रकार है-' काम वेदते मदो
नामासि समानया अपं सुरा ते अभवत्। परमत्र
जन्मा अग्रे तपसा निर्मितोऽसि *॥' ] जब अन्तिम
दो चरण बारह-बारह अक्षरोंके हों और आरम्भके
दोनों आठ-आठ अक्षरोंके तो *आस्तारपङ्कि'
नामक छन्द होता है। [जैसे ऋवेदमे- भद्रं नो
अपि वातय, मनो दक्षमुत क़तुम्। अधा ते सख्य
अन्धसो वि वो मदे रणन् गावो न यवसे विवक्षसे ॥'
(१०। २५। १)] यदि बारह अक्षरोवाले दो चरण
बीचमें हों और प्रथम एवं चतुर्थ चरण आठ-आठ
अक्षरोके हों तो उसे ' विस्तारपङ्कि" कहते है ।
[जैसे ऋ्वेदमे- अग्ने तव॒ श्रवो वयो, महि
भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो। बृहद्धानो शवसा
वाजमुक्थ्यं दधासि दाशुषे कवे॥' (१० | १४०।१)]
यदि बारह अक्षरोंवाले दो चरण बारह हों, अर्थात्
प्रथम एवं चतुर्थं चरणके रूपमे हों और बीचके
द्वितीय-तृतीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो
वह " संस्तारपङ्कि"' नामक छन्द होता है। [जैसे
ऋग्वेदमें -' पितुभृतो न तन्तुमित् सुदानवः प्रतिदध्मो
यजामसि। उषा अप स्वसुस्तमः संवर्तयति वर्तनि
सुजातता ॥' (१०। १७२। ३)] पाँच-पाँच अक्षरोकि
चार पाद होनेपर “अक्षरपद्धि'” नामक छन्द होता
है। [जैसे ऋग्वेदमें--'प्र शुक्रैतु५ देवी मनीषा।
अस्मत् सुतष्टो रथो न वाजी ॥' (७।३४।१)]
पाँच अक्षरोकि दो ही चरण होनेपर 'अल्पशः-
हों ओर शेष दोनों आठ-आठ अक्षरोकि, तो उसे | पद्धि' नामक छन्द कहलाता है । जहाँ पाँच-पाँच
१,-२-३. इने सबसें व्यूहकौ रौतिसे या ' निचत् ' मानकर पादपूर्ति कौ जाती है।
४. यहाँ ' चामा असि". “निर्मित: असि'-इस प्रकार संधिव्यूहसे पादपूर्ति कौ जाती है । कात्यायनने इसे गायत्री छन्द गिला है ।
सायणने इसे 'द्विपदा' कहा है ।
५. यहाँ "निचत्" होनेसे एक अक्षरकी न्यूनता है ।