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६७४ढ

लिये ऋग्वेदमें-“तं त्वा वयं पितो वचोभिर्गावो

न हव्या सुषूदिम । देवेभ्यस्त्वा सधमादमस्मभ्यं त्वा

सधमादम्‌ ' ॥ ' (१। १८७। ११) ] जहाँ पहले दस

अक्षरके दो चरण हों, फिर आठ अक्षरोकि दो

चरण हों, उसे भी " बृहती ' छन्द कहते हैं। [जैसे

सामवेदमें-' अग्रे विवस्वदुषसश्ित्रं राधो अमर्त्यं ।

आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥'

(४०) ] केवल " जगती ' छन्दके तीन चरण हों तो

उसे "महाबृहती ' कहते है । [जैसे ऋग्वेदमें--

"अजीजनो अमृत मर्त्येष्वा, ऋतस्य धर्मन-

मृतस्य चारुणः। सदासरो वाजमच्छसनिष्यदत्‌ '

(९।११०। ४) ] ताण्डी नामक आचार्यके मतमें यही

"सतो बृहती ' नामक छन्द है॥५--१०१३६॥

जहाँ दो पाद बारह-बारह अक्षरोंक और

दो आठ-आठ अक्षरोंके हों, वहाँ 'पद्धि' नामक

छन्द होता है। यदि विषम पाद अर्थात्‌ प्रथम ओर

तृतीय चरण पूर्वकथनानुसार बारह- बारह अक्षरोकि

हों और शेष दोनों आठ-आठ अक्षरोके तो उसे

"सतःपङ्कि' नामक छन्द कहते हैं। [जैसे

ऋग्वेदमें --'यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठ

हव्यवाहन । यं कण्वो मेध्यातिधिर्धनस्पृतं यं वृषा

यमुपस्तुतः ॥' (१।३६।१०)] यदि वे ही चरण

विपरीत अवस्थामें हों, अर्थात्‌ प्रथम-तृतीय चरण

आठ-आठ अक्षरोकि और द्वितीय- चतुर्थं बारह-

बारह अक्षरोके तो भी वह छन्द " सतःपङ्कि' ही

कहलाता है । [ जैसे ऋवेदमे -“ य ऋषये श्राववत्सखा

विश्वेत्‌ स वेद जनिमा पुरुष्टुतः। तं विश्वे मानुषा

युगे, इनदरं हवन्ते तविषं यतासुचः ॥' (८।४६। १२) ]

जब पहलेके दोनों चरण बारह- बारह अक्षरोंके

प्रस्तारपङ्कि' कहते है । [ ग्यारहवें श्लोके बताये

“पङ्कि' छन्दके लक्षणसे ही यह गतार्थ हो

जाता है, तथापि विशेष संज्ञा देनेके लिये यहाँ

पुनः उपादान किया गया है। मन्त्र-ब्राह्मणमें

इसका उदाहरण इस प्रकार है-' काम वेदते मदो

नामासि समानया अपं सुरा ते अभवत्‌। परमत्र

जन्मा अग्रे तपसा निर्मितोऽसि *॥' ] जब अन्तिम

दो चरण बारह-बारह अक्षरोंके हों और आरम्भके

दोनों आठ-आठ अक्षरोंके तो *आस्तारपङ्कि'

नामक छन्द होता है। [जैसे ऋवेदमे- भद्रं नो

अपि वातय, मनो दक्षमुत क़तुम्‌। अधा ते सख्य

अन्धसो वि वो मदे रणन्‌ गावो न यवसे विवक्षसे ॥'

(१०। २५। १)] यदि बारह अक्षरोवाले दो चरण

बीचमें हों और प्रथम एवं चतुर्थ चरण आठ-आठ

अक्षरोके हों तो उसे ' विस्तारपङ्कि" कहते है ।

[जैसे ऋ्वेदमे- अग्ने तव॒ श्रवो वयो, महि

भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो। बृहद्धानो शवसा

वाजमुक्थ्यं दधासि दाशुषे कवे॥' (१० | १४०।१)]

यदि बारह अक्षरोंवाले दो चरण बारह हों, अर्थात्‌

प्रथम एवं चतुर्थं चरणके रूपमे हों और बीचके

द्वितीय-तृतीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो

वह " संस्तारपङ्कि"' नामक छन्द होता है। [जैसे

ऋग्वेदमें -' पितुभृतो न तन्तुमित्‌ सुदानवः प्रतिदध्मो

यजामसि। उषा अप स्वसुस्तमः संवर्तयति वर्तनि

सुजातता ॥' (१०। १७२। ३)] पाँच-पाँच अक्षरोकि

चार पाद होनेपर “अक्षरपद्धि'” नामक छन्द होता

है। [जैसे ऋग्वेदमें--'प्र शुक्रैतु५ देवी मनीषा।

अस्मत्‌ सुतष्टो रथो न वाजी ॥' (७।३४।१)]

पाँच अक्षरोकि दो ही चरण होनेपर 'अल्पशः-

हों ओर शेष दोनों आठ-आठ अक्षरोकि, तो उसे | पद्धि' नामक छन्द कहलाता है । जहाँ पाँच-पाँच

१,-२-३. इने सबसें व्यूहकौ रौतिसे या ' निचत्‌ ' मानकर पादपूर्ति कौ जाती है।

४. यहाँ ' चामा असि". “निर्मित: असि'-इस प्रकार संधिव्यूहसे पादपूर्ति कौ जाती है । कात्यायनने इसे गायत्री छन्द गिला है ।

सायणने इसे 'द्विपदा' कहा है ।

५. यहाँ "निचत्‌" होनेसे एक अक्षरकी न्यूनता है ।

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