प्रशस्तये। देवा भवत : ॥' (१।२३। १९) ]
जब प्रथम और द्वितीय चरण आठ-आठ अक्षरॉके
हों और तृतीय चरण बारह अक्षरोंका हो तो
"परोष्णिक् ' छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें--
"अग्रे वाजस्य गोमत ईशान: सहसो यहो । अस्मे
धिहि जातवेदो महि श्रव:'॥' (१।७९। ४) ] सात-
सात अशक्षरोकि चार चरण होनेपर भी "उष्णिक् '
नामक छन्द होता है । [जैसे ऋवेदमें -' नदं व
ओदतीनां नदं यो युवतीनाम्। पतिं वो अध्न्यानां
धेनूनामिषुध्यसि ॥' (८।६९। २) ]
आठ-आठ अक्षरके चार चरणोंका "अनुष्टुप् '
नामक छन्द होता है । [ जैसे यजुर्वेदे -' सहस्रशीर्षा
पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं सर्वतः
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यदि एक चरण "जगती "का (अर्थात् बारह
अक्षरका) हो और शेष तीन चरण गायत्रीके
(अर्थात् आठ-आठ अक्षरके) हों तो यह चार
चरणोंका बृहती छन्द' होता है। इसमें भी जब
पहलेका स्थान तीसरा चरण ले ले अर्थात् वही
जगतीका पाद हो और शेष तीन चरण गायत्रीके
हों तो उसे "पथ्या बृहती' कहते हैं। [जैसे
सामवेदर्मे-" मा चिदन्यद् विशंसत सखायो मा
रिषण्यत । इद्रमित् स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था
च शंसत ॥' (२४२) } जब पहलेवाला "जगती "का
चरण द्वितीय पाद हो जाय ओर शेष तीन
गायत्रीके चरण हों तो ^ न्यङ्गुसारिणी बृहती'
नामक छन्द होता है । [जैसे ऋ्वेदमे -' मत्स्यपायि
स्पृत्वा अत्यतिष्ठदशाङ्गुलम्॥' (३१। १) ] अनुषटप् | ते महः पात्रस्येव हरिवो मत्सरो मदः। वृषा ते
छन्द कहीं-कहीं तीन चरणोंका भी होता है।
"त्रिपाद अनुष्टुप्" दो तरहक होते हँ । एक तो वह
है, जिसके प्रथम चरणमें आठ तथा द्वितीय और
तृतीय चरणोंमें बारह-बारह अक्षर होते है । दूसरा
वह है, जिसका मध्यम अथवा अन्तिम पाद् आठ
अक्षरका हो तथा शेष दो चरण बारह-बारह
अक्षरके हों। आठ अक्षरके मध्यम पादवाले
“त्रिपाद अनुष्टुप्" का उदाहरण [जैसे ऋग्वेदमें--
*पर्युपु प्र धन्व वाजसातय, परि युत्राणि सक्षणिः।
द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥' (९।११०।१) ]
यृष्ण इन्दर्वाजीसहस्रसातमः ॥' (१। १७५। १) ]
आचार्य क्रोष्टकिके मतमें यह (न्यङ्कुसारिणी)
'स्कन्ध' या 'ग्रीवा' नामक छन्द है'। यास्काचार्यने
इसे ही “उरोबृहती' नाम दिया है। जब अन्तिम
(चतुर्थ) चरण "जगती 'का हो और आरम्भके
तीन चरण गायत्रीके हों तो "उपरिष्टाद् बृहती ` '
नामक छन्द होता है । बही ' जगती 'का चरण जब
पहले हो और शेष तीन चरण गायत्री छन्दके हों
तो उसे "पुरस्ताद् बृहती ' छन्द कहते हँ । [जैसे
ऋग्वेदमें -' महो यस्पतिः शस्वसो असाम्या महो
तथा आठ अक्षरके अन्तिम चरणवाले "त्रिपाद् | नृम्णस्य ततुजिः। मतां वज्रस्य धृष्णोः पिता
अनुष्टुप् का उदाहरण [ऋग्वेदमें-'मा कयै | पुत्रमिव प्रियम्" ॥' (१०। २२। ३) ] वेदमें कहीं-
धातमध्यमित्रिणे नो मा कुत्रा नो गृहेभ्यो धेनवो | कहीं नौ-नौ अक्षरोके चार चरण दिखायी देते है ।
गुः । स्तनाभुजो अशिश्वीः ॥' (१।१२०।८)] | वे भी "बृहती ' छन्दके ही अन्तर्गत है । [ उदाहरणके
नि प वा
१. पाँचवें श्लोके " उष्णिक् ' छन्दका जो लक्षण दिया गया है, उसौसे यह भी गतार्थ हो जाता है । यहाँ ' परोष्णिक् ' यह विशेष संज्ञा
बतानेके लिये पुनः उल्लेख किया गया है ।
२. पिज्नलसूत्रमें ' स्कन्धोग्रीवी ' नाम आया है।
३. इसका उदाहरण सामवेदे इस प्रकार है-' अपरे जरितर्विश्पतिस्तपानों देव रक्षस: । अप्रोषियान् गृहपते मतं असि दिवस्पायु्रोणयु- ॥' ( ३९)
४. आठवें श्लोकके उत्तरा्धमें ज "बृहती छन्द 'का लक्षण दिया गया है, उसौसे यह भी गतार्थं हो जाता है; फिर भी विशेष संज्ञा
दैनेके लिये यहाँ पुतररुक्ति कौ गयी है।