उसकी विधि यों है-- ३ हूं हः फ् हूँ स्पर्शतन्माज संहरामि नमः ॥
३० हूँ हः फद् गन्धतन्मात्रं संहरामि नमः । ३» हु हः फद् हूँ शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ॥
ॐ हूं हः फट् हूं रसतन्मात्रं संहरामि नमः। --इस प्रकार पाँच उद्घात - वाक्योका उच्चारण
2 सिवः |कल नवस भूमिमण्डलको, वज़चिहित फट् हू रूपतन्मात्रं संहरामि नमः। | करके गन्धतन्मात्रस्वरूप भूमिमण्डलको, वञ्नचिहित
उस अस्मा है सः सोऽहम्।' इस भन्व्रसै जीवको परब्रह्म परमात्मासे संयुक्त कर दे । तदनन्तर अपने शरीरके पैरोंसे लेकर घुरनोतकके
भागे चौकोर आकृतिवाले वलाज्छिते भूमण्डलका चिन्तन करे, उसकी कनति सुय समान् है तथा यह " ॐ> लम्" इस भू-बोजसे
युक्त है। फिर घुटनोंसे लेकर नाभितकके भागमें अर्धचन्द्राकार, जलके स्थानभूत सोममण्डलकी भावना करें। यह दो कमलॉसे अद्वित्त,
क्त वर्णवाला तथा ' ॐ खम् ' इस वरुण-बीजसे विभूषित है। इसके बाद नाधिसे लेकर हृदयतकके भागे त्रिकोणाकार, स्वस्तिक-चिहले
रस, विष्णु, प्रतिह्वाकला तथा उदानवायुका ध्यान करे। तेजोमण्डलमें पायु-इन्द्रिय, विसर्ग, विस्र्जनीय, नेत्र, रूप, शिव, विद्याकला तथा
व्यानवातु -ध्वेय हैं। वायुमण्डलमें उपस्थ, आनन्द, स्वो, स्पर्शन, स्पर्श, ईशान, जान्तिकला तथा अपानवायु ~ ये आठ पदार्थ चिन्तनीय
हैं। इसी तरह आकाशमण्डलमें याम्, वक्तव्य, बदन, श्रोत्र, शब्द, सदाशिव, शान्त्यतीता कला तथा प्राजयायु--इन आठ वस्तुओंका
चिन्तने करवा चाहिये।
इस तरह भूतोंका चिन्तन करके पूर्व-पूर्य कार्यका उत्तरोत्तर कारणमें म्रह्मपर्यन्त विलीन करे। उसका क्रम इस प्रकार है-- ॐ ले
फर्! बोलकर “पाँच गुणवाली पृथियौका जलमें उपसंहार करता हूँ।'--इस भावनाके साथ भूमिका जले लव करे। फिर "ॐ व॑ हुं
फर।'--यह बोलकर ' चार गुणवाले जल - तवका अभ्निमें उपसंहार करता हूँ “इस भावनाके साथ जलका अग्निमें लय करे । तदनन्तर
"ॐ २ हुं फट्।' बोलकर ' तीन गुणोंसे युक्त तेजका वायुतत्वमे उपसंहार करता हँ! इस भावनाके स्वाथ अग्निका वायुमें लय करें। फिर
ॐ य॑ हुं फट्।' यह बोलकर ' दो गुणवाले यायुतत््वका आकाशतत्वमें उपसंहार करता हूँ-इस भावनाके साथ वायुका आकाशे लय
करे। इसके बाद " ॐ> हं हं फट् ।' ऐसा बोलकर ' एक गुणवाले आकाराका अहंकारमें उपसंहार करता हूँ'--इस संकल्पके साथ
आकाशका अहंकारमें सय करे। इसी क्रमते अहंकारका महत्तत्त्वमें, महतत्त्वका प्रकृतिमें और प्रकृति या मायाका आत्मामें लय करें।
इस प्रकार शुद्ध सब्चित्मव होकर पापपुरूषका चिन्तन करे--“वासनामय पाप यी कुक्षिमें स्थित है । उसका रंग काला है। वह
अगूठेके बराबर है। भ्रह्महत्या उसका सिर, सुवर्णकी चोरी बाँह, मदिरापात हृदय, गुर्तल्पगमन कटिप्रदेश तथा इन सबके साथ संसर्ग
ही उसके दोनों पैर हैं। उपपातक-राशि उसका मस्तक है। उसके हाथमें ढाल और तलवार है। उस दुष्ट पापपुरुषका मुँह नौचेकी ओर
है। वह अत्यत्त दु-सह है।' ऐसे पापपुरुषका चिन्तन करके पूरक प्राणायाममें ' ॐ> यं'--इस वायुबीजका बत्तीस या सोलह बार जप
करके उत्पादित वायुद्वारा उसका शोषण करे। तत्पश्चात् कुम्भक प्राणायाममें चौंसठ बार जपे गये ' ॐ रम्'--इस असग्निबीजद्धारा उत्थापित
आगकी ज्वालाम अपने शरीरसहित उस पापपुलुषकों जलाकर भस्म कर दे। तदनन्तर रेचक प्राणायामे ' ॐ> यम्'-इस चायुबोजका
सोलह चा बत्तीस बार जप करके उत्थापित वायुद्धारा दक्षिणनाड़ीके मग्रे उस भस्मको बाहर निकाले। इसके बाद देहगत भस्मको * ॐ
चप्" इस प्रकार उच्चारित अमृतवीजके द्वार आप्लायित करके ' ॐ> लम्'--इस भूबीजके द्वारा उस भस्मकों घनौभूत पिण्डके आकममें परिणत
कर दे और भावनामें हौ देखे कि वह सोनेके अण्डेके समान जान पड़ता है। तदनन्तर ' 35 हम्'--इस आकाशबीजका जप करो हुए, उस पिण्डके
दर्षणकी भोति स्वच्छ होनेकी भावन के और उसके द्वास मस्तकसे लेकर चरण-नखपर्वन््त अवययोंकी मनके पठ रचना करे।
इसके बाद पुनः सृष्टिमार्कका आश्रय ले, ब्रह्मसे प्रकृति, प्रकृतिसे महत्तत्व, महत्तत््वसे अहंकार, अहकारसे आकारा, आकाशसे
चावु, यायुसे अग्नि, अभ्विसे जल, जलसे पृथ्वो, पृथ्वीसे ओषधि, ओषधिसे अन्न, अन्नसे वीर्य और बौर्यसे पुरुष-शरीरकी उत्पत्ति करके
"ॐ हैं सः सोऽहम् ।'-- इ मन्दार ब्रह्मके साथ संयुक्त हो, एकीभूत हुए जीवको अपने इृदव-कमलवें स्थापित करें। ठद्नन्तर
कुष्डलिनीको पुत्र: मूलाधारगत हुई देखे । फिर इस प्रकार प्राणशक्तिका ध्यान करे--
वक्तम्भोधिस्थपोत्तोष्लसदरुणसरोजाधिरूढ़ा कान्यै प्यं कोटण्डमिशृूद्धबगुणमव चाष्यङ्करं पञ्च ऋणान्!
विभ्वना सृकपालं त्रिनयनलसिता पौनवक्षोरहाढण देवौ बालार्कवर्णा भवतु सुखकरी प्राजलक्ति: परा न; ४
“जो लालसागरमें स्थित एक पोतपर प्रफुक् अरुण कमलके आसनपर चिरायमाने है, अपने कर-कमलॉमें पाश, इश्चुमयी प्रत्यज्ासे
युक्त कोदण्ड, अद्भुरा तथा पाँच बाण लिये रहती हैं, जिन्होंने खूनसें भरा खप्पर भी ले रखा है, तीन नेत्र जिनके मुखमण्डलकौ शोभा
बढ़ाते हैं, जो ठभरे हुए पौन उरोजोंसे सुशोभित हैं तथा बाल-रविके समान जिनकौ अरुण-पीत कान्ति है, ये प्राजृक्तिस्वरूपा परा देवी
हमारे लिये सुखकी सृष्टि करनेवाली हों।'