अक्षर ग्रहण करने चाहिये। [यही बात अन्य
छन्दोके पादोंके सम्बन्धमें भी है।] “जगती
छन्दका पाद बारह अक्षरोंका होता है। विरादके
पाद दस अक्षरोंके बताये गये हैं। “ब्रिष्ठप्'
छन्दका चरण ग्यारह अक्षरोंका है। जिस छन्दका
जैसा पाद बताया गया है, उसीके अनुसार कोई
छन्द एक पादका, कोई दो पादका, कोई तीनका
और कोई चार पादका माना गया है। [जैसे आठ
अक्षरके तीन पादोंका “गायत्री' छन्द और चार
पादोंका "अनुष्टुप्" होता है।] “आदि छन्द '
अर्थात् " गायत्री ' कहीं छः अक्षरके पादोंसे चार
पादोंकी होती है। [जैसे ऋग्वेदमें--'इन्द्र
शचीपतिर्बलेन वीलितः। दुश्च्यवनो वृषा लमत्सु
सामहि:॥'] कहीं-कहीं गायत्री सात अक्षरके
पादोंसे तीन पादकी होती है। [जैसे ऋग्वेदमें--
“युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम्। भूयाम
वाजदाप्नाम्॥' (१। १७।४) } वह सात अशक्षरोवाली
गायत्री 'पाद-निचृत्' संज्ञा धारण करती है । यदि
गायत्रीका प्रथम पाद आठ अक्षरोंका, द्वितीय पाद
सात अक्षरोका तथा तृतीय पाद छः अक्षरोंका हो
तो वह ' प्रतिष्ठा गायत्री ' नामक छन्द होता है।
[जैसे ऋग्वेदमें--' आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे
मम। ज्योक् च सूर्य दृशे ॥' (१।२२।२९)]
इसके विपरीत यदि गायत्रीका प्रथम पाद छः,
द्वितीय पाद सात और तृतीय पाद आठ अक्षरोका
हो तो उसे ' वर्धमाना ' ` गायत्री कहते हैं। यदि
तीन पादोंवाली गायत्रीका प्रथम पाद छः, द्वितीय
पाद आठ और तीसरा पाद सात अक्षरोका हो तो
उसका नाम “अतिपाद' निचृत्' होता है। यदि दो
चरण नौ-नौ अक्षरोंक हों और तीसरा चरण छः
=
अक्षरोका हो तो वह "नागी" नामकी गायत्री होती
है। [जैसे ऋग्वेदमें-'अग्रे तमद्याश्व॑ न स्तोमै:
क्रतुं न भद्रं हदिस्पृशम्। ऋध्यापां ओहैः ॥'
(४।१०।१)] यदि प्रथम चरण छः अक्षरोंका
और द्वितीय-तृतीय नौ-नौ अक्षरोके हों तो
“वाराही गायत्री ' नामक छन्द होता है। [जैसे
सामवेदमे-' अग्ने मृड महां अस्यय आदेवयुं जनम्।
इयेथ बर्हिरासदम्॥' (२३) ] अब तीसरे अर्थात्
“विराट् ' नामक भेदको बतलाते है । जहाँ दो ही
चरणोंका छन्द हो, वहाँ यदि प्रथम चरण बारह
और द्वितीय चरण आठ अशक्षरका हो तो वह
"द्विपाद् चिराद्" नामक गायत्री छन्द है । [जैसे
ऋग्वेदमे -' नृभिर्येमानो हर्यतो विचक्षणो । राजा
देवः समुद्रियः ॥' (९ । १०७। १६) ] ग्यारह अक्षरोंकि
तीन चरण होनेपर ' त्रिपाद् विराट् ' नामक गायत्री
होती है । [उदाहरण ऋग्वेदमें --“दुहीयन् मित्रधितये
युवाकु राये च नो पिमीतं वाजवत्यै। इषे च नो
पिमीतं धेनुमत्यै ॥' (१।१२०।९)] ॥ १--४॥
जब दो चरण आठ-आठ अक्षरोके और एक
चरण बारह अक्षरोंका हो तो बेदमें उसे “उष्णिक् '
नाम दिया गया है । प्रथम और तृतीय चरण आठ
अक्षरोंक हों और बीचका द्वितीय चरण बारह
अक्षरोंका हो तो वह तीन पादोंका "ककुप्
उष्णिक् ' नामक छन्द होता है। [ जैसे ऋग्वेदमें --
"सुदेवः समहासति सुवीरो नरो मरुतः स मर्त्य:।
यं त्रायध्येऽस्यासते › ॥' (५।५३। १५) ] जब प्रथम
चरण बारह अक्षका और द्वितीय- तृतीय चरण
आठ-आठ अक्षरोकि हों तो "पुर उष्णिक् '
नामक तीन पादोंवाला छन्द होता है। [जैसे
ऋग्वेदमें-' अप्स्वन्तरमृतमयप्सु भेषजमपामुत
१. उदाहरण ऋग्वेदमें--त्वमग्रे यज्ञानां होता विश्वेषां हितः । देवेभिमानुपे जने ॥ (६। १६। १)
२. ऋवेदे यथा--प्रे्टं यो अतिधिं स्तुषे मित्रमिव प्रिवम्। अग्नि रथं न वेच्म् ॥ (८।८४।१)
३. इस मजमें 'मर्त्य'के स्थानमें व्यूहकी रीतिसे 'मर्तिय' मात्रते तथा ' अस्यास के स्थातमें " अस्य आसते ' इस प्रकार दौर्ष-यव्यूह
कऋरनेसे पदक पूर्ति होती है।