तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय
गौरी आदि देवियों तथा मृत्युंजयकी पूजाका विधान
महादेवजी कहते हैं-- स्कन्द! अब मैं सौभाग्य
आदिके निमित्त उमाकी पूजाका विधान बताऊँगा।
उनके मन्त्र, ध्यान, आवरणमण्डल, मुद्रा तथा
होमविधिका भी प्रतिपादन करूँगा॥ १॥
“गौ गौरीमूर्तये नमः*।'--यह गौरीदेवीका
वाचक मूल मन्त्र है। ॐ हीं सः शा गौर्यै
नमः।' तीन अक्षरसे ही “नमः ' आदिके योगपूर्वक
षडङ्गन्यास करना चाहिये । प्रणवसे आसन और
हदय-मन्त्रसे मूर्तिको उपकल्पना करे । 'ऊ' कालबीज
तथा शिवबीजका उद्धार करे । दीर्षस्वरसे आक्रान्त
प्राण-" यां यीं ' इत्यादिसे जातियुक्त षडङ्गन्यास
करे । प्रणवसे आसन तथा हदय-मन्त्रसे मूर्तिन्यास
करे। यह मैंने "यामल-मन्त्र' कहा है। अब
^एकवौर'का वर्णन करता हूँ। सृष्टिन्याससे युक्त
व्यापकन्यास अग्नि, माया तथा कृशानुद्वार करे ।
शिव-शक्तिमय बीज हदयादिसे वर्जित है । गौरीकी
सोने, चाँदी, लकड़ी अथवा पत्थर आदिक
प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करे। अथवा पाँच
पिण्डीवाली मृण्मयी प्रतिमा बनाये । चारों कोणोंमें
अव्यक्त प्रतिमा रहे और मध्यभागे पाँचवीं व्यक्त
प्रतिमा स्थापित करे। आवरण-देवताओंके रूपमे
क्रमशः ललिता आदि शक्तियोंकी पूजा करनी
चाहिये । पहले वृत्ताकार अष्टदल कमल बनाकर
आग्नेय आदि कोणवतीं दलोंमें क्रमशः ललिता,
सुभगा, गौरी और क्षोभणीकी पूजा करे। फिर
पूर्वादि दलोंमें वामा, ्येष्ठा, क्रिया और ज्ञानाका
यजन करे। पीठयुक्त वामभागमें शिवके अव्यक्त
रूपकी पूजा करनी चाहिये । देवीका व्यक्त रूप
दो या तीन नेत्रोंवाला है। वह शुद्ध रूप भगवान्
शंकरके साथ पूजित होता है। वे देवी दो पीठ
यादो कमलोंपर स्थित होती हैं। वहाँ देवी दो,
चार, आठ अथवा अठारह भुजाओंसे युक्त हैं,
ऐसा चिन्तन करे। वे सिंह अथवा भेडियेको भी
अपना वाहन बनाती है । अष्टादशभुजाके दार्ये नौ
हा्थोमिं नौ आयुध हैं, जिनके नाम यों है-लक्
(हन्), अक्ष, सूत्र (पाश), कलिका, मुण्ड,
उत्पल, पिण्डिका, बाण और धनुष। इनमेंसे
एक-एक महान् वस्तु उनके एक-एक हाथकी
शोभा बढ़ाते हैं। वामभागके नौ हाथोंमें भी
प्रत्येके एक-एक करके क्रमशः नौ वस्तुएँ है ।
यथा ~- पुस्तक, ताम्बूल, दण्ड, अभव, कमण्डलु,
गणेशजी, दर्पण, बाण और धनुष ॥ २-१४॥
उनको ' व्यक्त ' अथवा "अव्यक्त" मुद्रा दिखानी
चाहिये । आसन-समर्पणके लिये ' पद्म-मुद्रा' कही
गयी है । भगवान् शिवकौ पृजामें " लिङ्ग -मुद्रा' का
विधान है । यही *शिवमुद्रा' है । 'आवाहनीमुद्रा '
दोनोके लिये है । शक्ति-मुद्रा योनि ' नामसे कही
गयी है। इनका मण्डल या मन्त्र चौकोर है । यह
चार हाथ लंबा-चौड़ा हुआ करता है । मध्यवर्ती
चार कोषे त्रिदल कमल अङ्कित करना चाहिये ।
तीनों कोणोंके ऊर्ध्वभागमें अर्धचन्द्र रहे । उसे दो
पदों (कोष्ठो )-को लेकर बनाया जाय। एकसे
दूसरा दुगुना होना चाहिये। द्वारोंका कण्ठभाग
दो-दो पदोंका हो; किंतु उपकण्ठ उससे दुगुना
रहना चाहिये। एक-एक दिशामें तीन-तीन द्वार
रखने चाहिये अथवा ' सर्वतोभद्र" मण्डल बनाकर
उसमें पूजन करना चाहिये । अथवा किसी चबूतरे
या वेदीपर देवताकी स्थापना करके पञ्चगव्य तथा
पञ्चामृत आदिसे पूजन करे ॥ १५--१८॥
पूजन करके उत्तराभिमुख हो उन्हें लाल रंगके
* * श्रीविधार्णव-तन्त्र'में इसी मन््रको 'गौरीमन्त्र' कहा है । चँ सूलमें जो बीज दिये गये हैं, उनका उल्लेख वहां नहों मिलता है ।