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* अध्याय ३२५ +

हूँ, जिससे मन्त्र उत्तम सिद्धिको देनेवाला होता है। | होता है। पिशाचांश मन्त्र मलाक्रान्त होता है।

पृथ्वीपर कूटयन्त्ररहित मातृका (अक्षर) लिखे।

मन्त्राक्षरोको विलग-विलग करके अनुस्वारको

पृथक्‌ ले जाय । साधकका भी जो नाप हो, उसके

अक्षरोको अलग-अलग करे। मन्त्रके आदि और

अन्तम साधकके नामाक्षर जोड़े। फिर सिद्ध,

साध्य, सुसिद्ध तथा अरि-इस संज्ञाके अनुसार

अक्षरोको क्रमशः गिने। मन्त्रके आदि तथा

अन्ते ' सिद्ध ' हो तो वह शत-प्रतिशत सिद्धिदायक

होता है। यदि आदि और अन्त दोनोमिं " सिद्ध"

(अक्षर) हों तो उस मन्त्रकी तत्काल सिद्धि होती

है। यदि आदि ओर अन्तमं भी ' सुसिद्ध' हो तो

उस मन्त्रको सिद्धवत्‌ मान ले- वह मन्त्र अनायास

ही सिद्ध हो गया-एेसा समझ ले। यदि आदि

और अन्त-दोनोमिं "अरि" हो तो उस मन्त्रको

दूरसे ही त्याग दे। "सिद्ध" और ' सुसिद्ध'-

एकार्थक हँ । "अरि ' ओर "साध्य! भी एकसे ही

है । यदि मन्त्रके आदि और अन्त अक्षरे भी

मन्त्र "सिद्ध' हो ओर बीचंमें सहसरं "रिपु"

अक्षर हों तो भी वे दोषकारक नहीं होते है।

मायाबीज, प्रसादबीज और प्रणवके योगसे विख्यात

मन्त्रे अंशक होते है । वे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु

तथा रुद्रके अंश हैं। ब्रह्माका अंश ब्रह्मविद्या"

कहलाता दै । विष्णुका अंश "वैष्णव ' कहा गया

है । रुद्रांशक मन्त्र “ वीर' कहलाता है । इन्द्रांशक

मन्त्र 'ईश्वरप्रिय' होता है। नागांश-मन्त्र नागोंकी

भाँति स्तन्ध नेत्रवाला माना गया है। यक्षके

अंशका मन्त्र भूषणप्रिव होता है। गन्धर्वोकि

अंशका मन्त्र अत्यन्त गीत आदि चाहता है।

भीमांश, राक्षसांश तथा दैत्यांश-मन्त्र युद्ध करानेवाला

होता है। विद्याधरोके अंशका मन्त्र अभिमानी

मन्त्रका पूर्णतः निरीक्षण करके उपदेश देना

चाहिये। एकाक्षरसे लेकर अनेक अशक्षरोतकके

मन्त्रके अन्तमें यदि “फट्‌ '- यह पल्लव जुड़ा हो

तो उसे “मन्त्र! कहना चाहिये । पचास अक्षरोतकके

(फट्काररहित) मन््रकी 'विद्या' संज्ञा है । बीस

अक्षरोंतककी विद्याको "बाला विद्या" कहते है ।

बीस अक्षरोतकके ' अस्त्रान्त' मन्त्रको “रुद्रा' कहा

गया है। इससे ऊपर तीन सौ अक्षरोंतकके मन्त्र

"वृद्ध ' कहे जाते हैं। अकारसे लेकर हकारतकके

अक्षर मन्त्रमें होते हैं। मन्त्रम क्रमशः शुक्ल और

कृष्ण-दो पक्ष होते हैं। अनुस्वार और विसर्गको

छोड़कर दस स्वर होते हैं। हस्वस्वर शुक्लपक्ष

तथा दीर्घस्वर कृष्णपक्ष हैँ । ये ही प्रतिपदा आदि

तिथियाँ है। उदयकाल्मे शान्तिक आदि कर्म

करावे तथा भ्रमितकालमे वशीकरण आदि।

भ्रमितकाल एवं दोनों संध्याओंमें देषण तथा

उच्चाटन-सम्बन्धी कर्म करे। स्तम्भनकर्मके लिये

सूर्यास्तकाल प्रशस्त है। इडा नाड़ी चलती हो तो

शान्तिकं आदि कर्म करे। पिङ्गला नाड़ी चलती

हो तो आकर्षण-सम्बन्धी कार्य करे। विषुवकालमें

जब दोनों नाड़ियाँ समान भावसे स्थित हों, तब

मारण, उच्चाटन आदि पाँच कर्म पृथक्‌-पृथक्‌

सिद्ध करे। तीन तल्ले गृहमें नीचेके तल्लेको

“पृथ्वी ', बीचवालेको "जल ' तथा ऊपरवालेको

तेज ' कहते है । जहाँ-जहाँ रन्श्र (छिद्र या गवाक्ष)

है, वहाँ बाह्मपार्थमें वायु और भीतरी पारमे

आकाश है। पार्थिव अंशमें स्तम्भन, जलीय अशमे

शान्तिकर्म तथा तैजस अंशमें वशीकरण आदि कर्म

करे। वायुर्मे भ्रमण तथा शून्य (आकाश)-में .

पुण्यकर्म या पुण्यकालका अभ्यास करे ॥ ७-२३॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'अंशक आदिका कथन” नामक

तीन सौ प्रचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३२५ #

“४-47:

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