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चाहिये। इस मन्त्रका (बत्तीस) या तीस लाख

जप करके उसका दशांश होम करे। यह होम

गुग्गुलमिश्रित घीसे होना चाहिये। इससे मन्त्र

'सिद्ध' होता और साधक ' सिद्धार्थ ' हो जाता है।

वह सब कुछ कर सकता है। अघोरसे बढ़कर

दूसरा कोई मन्त्र भोग तथा मोक्ष देनेवाला नहीं

है। इसके जपसे अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी होता तथा

अख्नातक स्नातक हो जाता है। अधघोरास्त्र तथा

अघोर-मन्त्र-दोनों मन्त्रराज हैं। इनमेंसे कोई भी

मन्त्र जप, होम तथा पूजनसे युद्धस्थलमें शत्रुसेनाको

रौद सकता है ॥ ४--८॥

अब मैं कल्याणमयी ^ रुद्रशान्ति"का वर्णन

करता हूँ, जो सम्पूर्ण मनोरधोंको सिद्ध करनेवाली

है। पुत्रकी प्राप्ति, ग्रहबाधाके निवारण, विष एवं

व्याधिके विनाश, दुर्भिक्ष तथा महामारीकी शान्ति,

दुःस्वप्रनिवारण, बल आदि तथा राज्य आदिकी

प्राप्ति और शत्रुओंके संहारके लिये इस ' रुद्रशान्ति 'का

प्रयोग करना चाहिये। यदि अपने बगीचेके किसी

वृक्षमें असमयमें फल लग जाय तो यह भी

अनिष्टकारक है; अतः उसकी शान्तिके लिये तथा

समस्त ग्रहबाधाओंका नाश करनेके लिये भी उक्त

शान्तिका प्रयोग किया जा सकता है। पूजन-

कर्ममें मन्त्रके अन्तमें “नमः” बोलना चाहिये तथा

हवन-कर्ममें 'स्वाहा'। आप्यायन (तृप्ति)-में

मन्त्रान्तमें " वषद्‌ ' पदका प्रयोग करे और पुष्टि-

कर्ममें "वौषट्‌" पदका। मन्त्रम जो दो जगह

“च 'का प्रयोग है, वहाँ आवश्यकताके अनुसार

“नमः ', ' स्वाहा" आदि जातिका योग करना

चाहिये ॥ ९--१२॥

रुद्रशान्ति-मन्त्र

ॐ रुद्राय च ते ॐ वृषभाय नमोऽविमुक्ताया-

सम्भवाय पुरुषाय च पूज्यायेशानाय पौरुषाय पञ्च

पञ्चोत्तर विश्वरूपाय करालाय विकृतरूपायाविकृत-

रूपाय ॥ १३॥

उत्तरवतीं कमलदलमें नियतितत्त्वकी स्थिति

है, जल (वरुण) -कौ दिशा पश्चिमके कमलदलमें

कालतत्त्व है और नैरऋत्यकोणवर्ती दलमें मायातत्त्व

अवस्थित है; उन सबमें देवताओंकी पूजा होती

है। "एकपिङ्गलाय श्वेतपिङ्गलाय कृष्णपिङ्गलाय

नमः। मधुपिङ्गलाय नमः- मधुपिङ्गलाय ।'- इन

सबकी पूजा नियतितत्त्वमे होती है । 'अनन्‍्तायाद्राय

शुष्काय पयोगणाय (नमः )।'-- इनकी पूजा

कालतत्त्वे करे । ' करालाय विकरालाय ( नमः )।'

-- इन दोकी पूजा मायातत्त्वे करे । ' सहस्रशीर्षाय

सहस्रवक्त्राय सहस्रकरचरणाय सहस्रलिङ्गाय

(नमः )।'-- इनकी अर्चना विद्यातत्त्वे करे । वह

इन्द्रसे दक्षिण दिशाके दलमें स्थित है । वहीं छः

पदोंसे युक्त षड्विध रुद्रका पूजन करे। यथा -

^एकजटाय द्विजटाय त्रिजटाय स्वाहाकाराय

स्वधाकाराय वषट्काराय षड्रुद्राय।' स्कन्द्‌!

अग्रिकोणवर्ती दलमें ईशतत्त्वकी स्थिति है । उसमें

क्रमशः ' भूतपतये पशुपतये उमापतये कालाधिपतये

(नमः )।' बोलकर भूतपति आदिकौ पूजा करे ।

पूर्ववतीं दल सदाशिव- तत्त्वम छः पूजनीयोंकी

स्थिति है, जिनका निम्नाद्भित मन्त्रमें नामोल्लेख

है । यथा -'उमायै कुरूपधारिणि ॐ कुरु कुरु

रुहिणि रुहिणि रुद्रोऽसि देवानां देवदेव विशाख

हन हन दह दह पच पच मथ मथ तुरु तुरु अरु

अरु मुरु मुरु रुद्रशान्तिमनुस्मर कृष्णपिङ्गल अकाल-

पिशाचाथिपति विदयोश्वराय नमः।' कमलकी

कर्णिकामें शिवततत्वकी स्थिति है। उसमें भगवान्‌

उमा-महेश्वर पूजनीय हैँ । मन्त्र इस प्रकार है -

"ॐ व्योमव्यापिने व्योमरूपाय सर्वव्यापिने

शिवायानन्ताय नाथायानाश्रिताय शिवाय ' (प्रणवको

अलग गिननेपर इस मन्त्रम कुल नौ पद ह )-

शिवतत्त्वमे व्योमव्यापी नामवाले शिवके नौ

पदोंका पूजन करना चाहिये ॥ १४--२४॥

तदनन्तर योगपीठपर विराजमान शिवका नौ

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