* अध्याय ३२१ *
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कमल होंगे, जिनका वर्ण श्वेत होगा। मध्यवती
कमलमें निष्कल (निराकार परमात्मा)-का पूजन
करना चाहिये । पूर्वादि दिशाओमिं हृदय आदि
अङ्कौ तथा विदिशाओंमें अस्त्रोंकी पूजा होनी
चाहिये । पूर्ववत् ' सद्योजात ' आदि पाँच ब्रह्ममय
मुखोंका भी पूजन आवश्यक है ॥ ३४--३७॥
अब मैं ' बुद्धयाधार-चक्र'का वर्णन करता
हूँ। सौ पदोकि क्षेत्रमेंसे मध्यवर्ती पंद्रह पदोंमें एक
कमल अङ्कित करे। फिर आठ दिशाओंमें एक-
एक करके आठ शिवलिड्रोंकी रचना करे।
मेखलाभागसहित कण्टकी रचना दो परो
होगी। आचार्य अपनी बुद्धिका सहारा लेकर
यथास्थान लता आदिकी कल्पना करे । चार, छः,
पाँच और आठ आदि कमलोंसे युक्त मण्डल
होता है। बीस-तीस आदि कमलोवाला भी
मण्डल होता है। १२१२० कमलोंसे युक्त भी
सम्पूर्णं मण्डल हुआ करता है। १२० कमलोकि
मण्डलका भी वर्णन दृष्टिगोचर होता है।
श्रीहरि, शिव, देवी तथा सूर्यदेवके १४४० मण्डल
हैं। १७ पदोद्रारा सत्रह पदोंका विभाग करनेपर
२८९ पद होते हैं। उक्त पदोकि मण्डलमें लतालिङ्गका
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दिशामें पाँच, तीन, एक, तीन और पाँच
पदोंको मिटा दे। ऊपरके दो पदोंसे लिङ्ग
तथा पार्वतीं दो-दो कोष्ठकोंसे मन्दिर बनेगा।
मध्यवर्ती दो पदोंका कमल हो। फिर एक
कमल और होगा। लिङ्गके पार्थ्रभागॉमें दो "भद्र"
बनेंगे। एक पदका द्वार होगा; उसका लोप
नहीं किया जायगा। उस द्वारके पार्श्वभागोंमें
छः-छः पदोंका लोप करनेसे द्वारशोभा बनेगी।
शेष पदोंमें श्रीहरिके लिये लहलहाती लताएँ
होंगी। ऊपरके दो पदाँका लोप करनेसे श्रीहरिके
लिये 'भद्राष्टक' बनेंगे। फिर चार पदोंका
लोप करनेसे रश्मिमालाओंसे युक्त शोभास्थान
बनेगा। पचीस पदोंसे कमल, फिर पीठ, अपीठ
तथा दो-दो पदोंको रखकर (एकत्र करके)
आठ उपशोभाएँ बनेंगी। देवी आदिका सूचक
* भद्रमण्डल ' बीचमें विस्तृत और प्रान्तभागमें लघु
होता है। बीचमें नौ पदोंका कमल बनता है तथा
चारों कोणोंमें चार 'भद्रमण्डल' बनते हैं। शेष
त्रयोदश पदोंका ' बुद्धयाधार-मण्डल' है। इसमें
एक सौ साठ पद होते हैं। 'बुद्धयाधार-मण्डल'
भगवान् शिव आदिकी आराधनाके लिये प्रशस्त
उद्धव कैसे होता है, यह सुनो। प्रत्येक | है॥ ३८--४८ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुदणर्में 'मण्डलविधानका वर्णन” नामक
तीन सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३२० ॥
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तीन सौ इक्कीसवां अध्याय
अघोरास् आदि शान्ति-विधानका कथन
महादेवजी कहते है - स्कन्द ! पहले समस्त | ध्यान करते हुए युद्धसे पूर्व पूजा कर ली जाय तो
कर्मों “अस्त्रयाग' करना चाहिये। यह सिद्धि | विजयकी प्राप्ति होती है। ग्रहपूजा करते समय
प्रदान करनेवाला है। मध्यभागे शिव, विष्णु | नवग्रहचक्रके मध्यमे सूर्यदेवकौ तथा पूर्वादि
आदिके अस्त्रकी पूजा करनी चाहिये तथा पूर्वादि | | दिशाओंमें सोम आदिकी अर्चना करनी चाहिये ।
दिशाओंमें क्रमशः इ्रादि दिक्पा्लोके वज्र आदि | ग्रहोंकी पूजा करनेसे सभी ग्रह एकादश (ग्यारहवें)
अस्त्रोंका पूजन करना चाहिये। भगवान् शंकरके | स्थानें स्थित होते हैं और उस स्थानमें स्थितकी
पाँच मुख तथा दस हाथ हैं। उनके इस स्वरूपका | भाँति उत्तम फल देते है ॥ १-२१॥