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तीन सौ बीसवाँ
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अध्याय
सर्वतोभद्र आदि मण्डलोंका वर्णन
भगवान् शिव कहते ईै-- स्कन्द! अब मैं
"सर्वतोभद्र" नामक आठ प्रकारके मण्डर्लोका
वर्णन करता हूँ। पहले शङ्कु या कीलसे
प्राचीदिशाका साधन करे । इस प्राचीका निश्चय हो
जानेपर विद्वान् पुरुष विषुवकालमें चित्रा और
स्वाती नक्षत्रके अन्तरसे, अथवा प्रत्यक्ष सूतको
लेकर पूर्वसे पश्चिमतक उसे कैलाकर मध्यमे दो
कोटियोंको अद्धित करे । उन दोनोकि मध्यभागसे
उत्तर-दक्षिणकी लंबौ रेखा खींचे। दो मत्स्योका
निर्माण करे तथा उन्हें दक्षिणसे उत्तरकी ओर
आस्फालित करे । क्षतपद क्षेत्रके आधे मानसे
कोण सम्पात करे। इस तरह चार बार सूत्रके
कषत्रम आस्फालनसे एक चौकोर रेखा बनती है ।
उसमें चार हाथका शुभ भद्रमण्डल बनाये। आठ
पदोंमें सब ओरसे विभक्त चौसठ पदवालेमेंसे
बीस पदवाले कषत्रम बाहरकी ओर एक वीधीका
निर्माण करे। यह वीथी एक मन्त्रकी होगी।
कमलके मानसे दो पदोंका द्वार बनाये। द्वार
कपोलयुक्त होना चाहिये । कोणबन्धके कारण
उसकी विचित्र शोभा हो, ऐसा द्विपदका द्वार-
निर्माणमें उपयोग करे। कमल श्वेतवर्णका हो,
कर्णिका पीतवर्णसे रैगी जाय, केसर चित्रवर्णका
हो, अर्थात् उसके निर्माणमें अनेक रंगोंका उपयोग
किया जाय। वीथीको लाल रंगसे भरा जाय। द्वार
लोकपाल-स्वरूप होता है। नित्य तथा नैमित्तिक
विधिमें कोर्णोका रंग लाल होना चाहिये। अब
कमलका वर्णन सुनो। कमलके दो भेद हैं--
"असंसक्त" तथा ' संसक्त '। ' असंसक्त" मोक्षकी
तथा संसक्त भोगकी प्राप्ति करानेवाला है।
"असंसक्त" कमल मुमुक्षुओंके लिये उपयुक्त है ।
संसक्त कमलके तीन भेद हैँ - बाल, युवा तथा
वृद्ध । वे अपने नामके अनुसार फलसिद्धि प्रदान
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करनेवाले है ॥ १--९॥
कमलके क्षतरमे दिशा तथा कोणदिशाकी ओर
सूत-चालन करे तथा कमलके समान पाँच वृत्त
निर्माण करे। प्रथम वृत्तमें नौ पुष्करोंसे युक्त
कर्णिका होगी, दूसरेमें चौबीस केसर रहेंगे,
तीसरेमें दलोंकी संधि होगी, जिसकी आकृति
हाथीके कुम्भस्थलके सदृश होगी, चौथे वृत्तमें
दलोंके अग्रभाग होंगे तथा पाँचवें वृत्तमें आकाशमात्र
“शून्य रहेगा। इसे “संसक्त कमल' कहा गया है।
"असंसक्त कमल भँ दलाग्रभागपर जो दिशाओंके
भाग हैं, उनके विस्तारके अनुसार दो भाग
छोड़कर आठ भागोंसे दल बनाये। संधि-
विस्तारसूत्रसे उसके मानके अनुसार दलकी रचना
करे। इसमें बायेंसे दक्षिणके क्रमसे प्रवृत्त होना
चाहिये। इस तरह यह "वृद्ध संसक्त कमल' बनता
है॥ १०--१४॥
अथवा संधिके बीचसे सूतको अर्धचन्द्राकार
घुमाये या दो संधियोंके अग्रवती सूतको
(अर्धचन्द्राकार) घुमाये। ऐसा करनेसे 'बालपद्म'
बनता है। संधिसूत्रके अग्रभागसे पृष्ठभागकी ओर
सूत घुमाये। वह तीक्षण अग्रभागवाला “युवा'
संज्ञ़क है। ऐसे कमलसे भोग और मोक्षकी
उपलब्धि होती है। सम (छः) मुखवाले स्कन्द!
मुक्तिके उद्ेश्यसे किये जानेवाले आराधनात्मक
कर्मे “वृद्ध कमल "का उपयोग करना चाहिये
तथा वशीकरण आदिमे “बालपद्म 'का। ' नवनाभ'
कमलचक्र नौ हाथोंका होता है । उसमें मन््रात्मक
नौ भाग होते है । उसके मध्यभागमें कमल होता
है। उस कमलके ही मानके अनुसार उसमें
पटिका, वीथी ओर दारके साध कण्ठ एवं
उपकण्ठके निर्माणकी बात भी कही गयी है।
उसके बाह्मभागमें वीथीकी स्थिति मानी गयी है ।