Home
← पिछला
अगला →

+ अध्याय ३१७ *

[वव

६५१

तीन सौ सोलहवां अध्याय

त्वरिता आदि विविध मन्त्र एवं कुल्जिका-विद्याका कथन

अग्निदेव कहते है -- मुने! पहले "हुं ' रखे,

फिर 'खे च च्छे'- ये तीन पद जोड़कर मन्त्रकौ

शोभा बढ़ावे। तत्पश्चात्‌ ' क्षः स्त्रीं हूं क्षि ' लिखकर

अन्तमं "फट्‌ ' जोड़ दे । (कुल मिलाकर) “हुं खे

च च्छे क्षः स्त्रीं हूं क्षे डीं फट्‌।' यह दशाक्षरा

त्वरिता-विद्या हुई। यह विद्या समस्त कार्योको

सिद्ध करनेवाली तथा विष, सर्पादिका मर्दन

करनेवाली है। "खे च च्छे'- यह ज़्यक्षर-विद्या

काल (अथवा काले साँप)-के डँसे हुएको भी

जीवन देनेवाली है॥ १-२॥

"ॐ हूं खे श्चः'- इस चतुरक्षरी विद्याका

प्रयोग विष एवं सर्पदंशकी पीड़ाको नष्ट करनेवाला

है। (पाठान्तर “विषशप्रुप्रमर्दन:' के अनुसार

उक्त विद्याका प्रयोग विष एवं शत्रुकी बाधाको

दूर करनेवाला है ।) 'स्त्रीं हूं फट्‌ '-- इस विद्याका

प्रयोग पाप तथा रोग आदिपर विजय दिलाता है।

"खे च'--इस द्वयक्षरं मन्त्रका प्रयोग शत्रु एवं

दुष्ट आदिकी बाधाको दूर करता है। 'हूं स्त्री

ॐ '- इस मन्त्रका प्रयोग स्त्री आदिको वशमें

करनेवाला है। “खे स्त्रीं खे'--इस मन््रका

प्रयोग कालसर्पद्वारा डैंसे गये मनुष्यके जीवनकी

रक्षा करता है तथा शत्रुओंपर विजय दिलाता है।

"क्षः स्त्री क्षः'- इसका प्रयोग वशीकरण तथा

विजयका साधक है ॥ २-५॥

कुल्जिका-विद्या

*ऐँ ह्रीं श्री हसखफ्रें हसौ: ॐ नमो भगवति

हसखपफ्रें कुब्जिके हसत हसं अघोरे घोरे अघोरमुख्ि

छां छं किणि किणि विच्ये हसौः हसखफ़्रें श्री

हीं ऐं' '-- यह श्रीमती कुब्जिकाविद्या सब कार्योंको

सिद्ध करनेबाली मानी गयी है॥६॥

अब उन मन्त्रोंका वर्ण. किया जायगा, जिनका

उपदेश भगवान्‌ शंकरने स्कन्दको दिया था॥७॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें त्वरिता आदि नाना मन्त्रोक्ता तथा कृन्जिका- विद्याका वर्ण” नामक

तीन सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३१६ ॥

तीन सौ सत्रहवाँ अध्याय

सकलादि मन्त्रोंके उद्धारका क्रम

भगवान्‌ शिव कहते ह -- स्कन्द ! सकल, | प्रासादपरासंज्ञकः मन्त्रके आठ स्वरूप माने गये

निष्कल, शून्य, कलाढ्य, समलंकृत, क्षपण, क्षय, | है । ('कलाढ्थ' सकलके और ' शून्य ' निष्कलके

अन्तःस्थ, कण्ठोष्ठ तथा आठवाँ शिव -' ये | अन्तर्गत है।) यह शब्दमय मन्त्र साक्षात्‌ सदाशिवरूप

१. यह मन्त्र अग्निपुराणकी विभिल पोथियोंमें विभिल रूपसे छपा है । कोई भी शुद्ध गहों है, अत: * श्रीविद्या्णकव-तख' (अष्टम

श्वास)-में जो इसका शुद्ध फठ मिलता है, वही यहाँ रखा गया है। वहीं इसका विनियोग-वाक्य यों दिया गया है - अस्व श्रीकुब्जिकामन्तस्य

रुद्र ऋषिगांयजी छन्दः कुब्निफा देवता हसौः यौज हसखफ्रें शक्ति: हसूं कौलकम्‌, श्रौविद्याङ्गत्वेन विनियोगः ।' पूतावाले अग्निपुराणमें इस

भन्तरका पाठ यों है--'ऐं हीं शी स्फ भावति अम्बिके कुब्जिके स्पती स्फ स्फम्‌ ऊँ ठ ठ रण जपो पोरमुखिच्छां छी किणि किणि बिच्छू

स्फो हो श्री होम्‌ ए ।' यहो मन्त्र बहुल पाठान्तरके साथ चौखम्बावाले संस्करणमे भी है । दोनों जगहका पाठ अशुद्ध हो है । पिछले १४३,

१४४ अध्यायोंमें भो कुम्निकाका प्रसद्भ द्रष्टव्य है ।

२. 'औविचार्णव-तन्त्र' में 'प्रासादपत-संज्ञक' मन्त्रका उद्धार प्राप्त होता है । उसके अनुसार इसका स्वरूप है --' हसी '। यही वदि

सादि हो जाय, अर्थात्‌ 'सहाँ' के रूपमे लिखा जाय तो * परा-प्रास्ताद-मन्त्र' कहलाता है । केवल “हाँ ' हो अर्थात्‌ सकारसे संयुक्त न हो तो

यह शुद्ध 'प्रासाद-मन्त' है।

← पिछला
अगला →