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सिद्धियाँ आ जाती हैं। सारी त्रिलोकी उसके चरणोंमें

झुक जाती है। वह नौ खण्डोंमें विभक्त जम्बूद्दी पकी

सम्पूर्ण भूमिपर अधिकार प्राप्त कर लेता है।

कपाल (खप्पर)-पर अथवा श्मशानके वस्त्र (शवके

ऊपरसे उतारे हुए कपड़े)-पर सब ओर शिवतत्त्व

लिखकर मन्त्रवेत्ता पुरुष बाहर निकले और मध्यभागमें

कर्णिकाके ऊपर अभीष्ट व्यक्तिविशेषका भोजपत्रपर

नाम लिखकर रख दे। फिर खैरकी लकडीसे तैयार

किये गये अज्जरोंद्राण उस भोजपत्रको तपाकर

दोनों पैरोंके नीचे दबा दे। यह प्रयोग एक ही

सप्ताहमें चराचर प्राणियॉसहित समस्त त्रिभुवनको

भी चरणोंमें ला सकता है । वज़सम्पुट गर्भसे युक्त

द्वादशारचक्रके मध्यमे द्वेष्य व्यक्तिका नाम लिखकर

रखे। उस नामको “सदाशिव ' मन्त्रसे विदर्भित

(कुशोंद्वारा मार्जित) कर दे। उक्त द्वादशारचक्र तथा

नाम आदिका उल्लेख हल्दीसे दीवारपर, काप्ठफलकपर

अथवा शिलापट्टपर करना चाहिये। ऐसा करनेसे

शत्रुके मुख, गमनशक्ति तथा सेनाका भी स्तम्भन

(अवरोध) हो जाता है॥ १--१२॥

श्मशानके वस्त्रपप विषभिश्रित रक्तसे

षट्कोणचक्रका उल्लेख कर उसके मध्यमें शत्रुका

नाम लिखे। फिर उस चक्रको चारों ओर शक्तिबीजसे

योजित करके उसपर डंडा रख दे। फिर साधक

श्मशानभूमिपर रखे हुए उस शत्रुपर शीघ्र दण्डसे

प्रहार करे। यह प्रयोग उस शत्रु-राजाके राष्ट्रको

खंण्डित कर देता है। इसी तरह चक्राकार मण्डल

बनाकर उसके मध्यभागमें शत्रुके नामको स्थापित

कर दे। चक्रकी धारामें शक्तिबीजका न्यास करे।

शत्रुका नाम लेकर उसपर भावनाद्वारा उक्त चक्रधारसे

प्रहार करे। इससे शत्रुका हरण होता है। इसी प्रकार

खड़॒के मध्यभागे गरुडबीजके साथ शत्रुका नाम

लिखकर उसका पूर्ववत्‌ विदर्भीकरण करे। उक्त

नाम श्मशानभूमिकी चिताके कोयलेसे लिखना

चाहिये। उसपर चिताके भस्मसे प्रहार करे। ऐसा

करनेसे साधक एक ही सप्ताहमें शत्रुके देशको

अपने अधिकारमें कर लेता है। वह छेदन, भेदन

और मारणमें शिवके समान शक्तिशाली हो जाता

है। तारक (फट्‌)-को नेत्र कहा गया है। उसका

शान्ति-पुष्टिकर्ममें नियोग करे। यह दहनादि प्रयोग

शाकिनीको भी आकर्षित कर लेता है। पूर्वोक्त नौ

चक्रो मध्यगत मन्त्राक्षससे लेकर पश्चिम-दिशावर्ती

कोष्ठतकके दो अक्षरोंको वक्रतुण्ड-मन्त्रके साथ

जपनेसे कुष्ठ आदि जितने भी चर्मगत रोग हैं, उन

सबका नाश हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।

(यह अध-ऊर्ध्व-विभागयोग है।) मध्यकोष्ठसे

उत्तरवर्ती कोष्ठतकके दो अक्षरवाले मन्त्रको

"करालीबन्ध ' के साथ जप करे तो वह द्वयक्षरी-

विद्या, यदि साक्षात्‌ शिव प्रतिवादी हों तो उनसे

भी अपनी रक्षा करवाती है। इसी प्रकार पश्चिमगत

मन्त्राक्षको आदिमें रखकर उत्तर कोष्ठतकके

मन्त्राक्षरोंको 'वक्रतुण्ड-मन्त्र'के साथ जप किया

जाय तो ज्वर तथा खाँसीका नाश होता है।

उत्तरकोष्ठसे लेकर मध्यकोष्ठतकके मन्त्राक्षरोंका

एक-एक साथ जप किया जाय तो साधककी

इच्छासे वटके बीजमें गुरुता (भारीपन) आ

सकती है। इसी तरह पूर्वादि-मध्यमान्त अक्षरोंके

जपसे वह तत्काल उसमें लघुता (हल्कापन) ला

सकता है। भोजपत्रपर गोरोचनाद्वारा वज़से व्याप्त

भूपुरचक्र लिखकर, अनुलोमक्रमसे स्थित मन्त्र

बीजोंकों लिखकर, उसे मन्त्रवत्‌ धारण करके

साधक अपने शरीरकी रक्षा करे। भावपूर्वक

सुवर्णमें मढ़ाकर धारण किया गया यह 'रक्षायन्त्र'

मृत्युका भी नाश करनेवाला होता है। बह

विघ्न, पाप तथा शत्रुओंका दमन करनेवाला है

तथा सौभाग्य और दीर्घायु देनेवाला है। यह

*रक्षायन्त्र' धारण किया जाव तो वह जूआ तथा

युद्धमें भी विजयदायक होता है। इन्द्रकी सेनाके

साथ संग्राम हो तो उसमें भी वह विजय दिलाता

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