कहे गये हैं। सातवाँ और आठवाँ कवच-मन््र
हैं, नवाँ और आधा अक्षर तारक (फट् ) है।
यही नेत्र कहा गया है। (प्रयोग--3 हूं हृदयाय
नमः। खे च्छे शिरसे स्वाहा। क्षः स्त्री शिखायै
वषट् । क्षे हुम् कवचाय हुम्। फट् नेत्रत्रयाय
वौषट् । ) ॥ २१-२२॥
'तोतले वज्रतुण्डे ख ख हूं'--इन दस
अक्षरोंसे युक्त " वज्जतुण्डिका' नामक 'इन्द्रदूतिका
विद्या ' है। खेचरि ज्वालिनि ज्वाले ख ख '-
इन दस अक्षरोसे युक्त ' ज्वालिनी विद्या' है।
"वचं शरविभीषणि (अथवा शवरि भीषणि) ख
खे'- यह दशाक्षरा "शबरी विद्या" है। 'छे
छेदनि करालिनि ख ख '-- यह दशाक्षरा ' कराली
विद्या" है । ' क्ष: श्रव द्रव प्लवद्धि ख खे '-- यह
दशाक्षर 'प्लवङ्खदूतौ विद्या” है। `स्त्रीबलं
शासी '-- यह दशाक्षरा ' ध्रसनवेगिका
विद्या" है। ' क्षे पक्षे कपिले हंस '-- यह दशाक्षरा
*कपिलादूतिका विद्या' है। 'हूं तेजोवति रौद्रि
मातड्लि '-- यह दशाक्षरा "रौद्री" दूतिका है "पुटे
पुटे ख ख खड़े फट्'- वह दशाक्षरा
*ब्रह्मदूतिका विद्या" है। ' वैताली 'मे उक्त सभी
व व
मन्त्र दशाक्षर होते है। अन्य विस्तारकी बातें
पुआलकी भाँति सारहीन हैं। उन्हें छोड़ देना
चाहिये। न्यास आदिमे हृदयादि अङ्गका
उपयोग है। नेत्रका सुधी पुरुष मध्यमे न्यास
करे॥ २३--२८॥
चैरसे लेकर मस्तकतक तथा मस्तकसे लेकर
चैरोतक चरण, जानु, ऊरु, गुह्य, नाभि, हृदय तथा
कण्ठदेशसे मुखमण्डलपर्यन्त ऊपर-नीचे आदिबीजसे
निर्गत सोमरूप * अकार ', जो अमृतकी धारा एवं
सुवाससे परिपूर्ण है, ब्रह्मरनधरसे मुझमें प्रवेश कर
रहा है, ऐसा साधक चिन्तन करे। मन्त्रोपासक
मूर्धा, मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि, गुह्य, ऊरु, जानु
और पैरोंमें तथा तर्जनी आदिमे आदिबीजका
बारंबार न्यास करे। ऊपर अमृतमय सोम है, नीचे
बौजाक्षररूप शरीर-कमल है । इस गूढ़ रहस्यको
जो जानता है, उसकी मृत्यु नहीं होती है।
इस मन्त्रके जपसे रोग-व्याधिका अभाव हो जाता
है। न्यास और ध्यानपूर्वक त्वरितादेवीका पूजन
और उनके मन्त्रका एक सौ आठ बार जप
करे* ॥ २९--३३ ॥
अब मैं "प्रणीता" आदि मुद्राओंका वर्णन
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* + श्रीविधार्णवतन्त्र' में त्वरिता-नित्याका प्रयोग संक्षेपसे इस प्रकार उपलब्ध होता है - अन्यत्र कथित आंसनादि योगपीठन्यासान्त
कर्म करके त्वरिता-विध्ाद्वारा सीन प्राभायाम करके निम्नाड्शित रूपसे विनियोग करें--' अस्य त्वरितामन्रस्य सौरिऋषिर्यिराट्छन्द: त्वरि
नित्या देवता स्त्री कबचम्। ॐ बीज॑ हुं शक्ति: षे कीलकम् ममाभीष्टसिद्धये जपे विनियोग: ।' इसका न्यासवाक्य इस प्रकार है--' सौरये
अये नमः शिरि । विराट्सन्दसे नमः मुखे। त्वरितानित्यादेयतायै नम: हृदि। ॐ चौनाय नम: गुझे ।हुं शकये नमः पादयोः । क्षे कौलकाय
जमः नाभौ ।' अग्रिपुराणमें दशाक्षरा" तोतला- त्वरिता 'का मत्त्र है। परंतु ' ब्रोविद्यार्णव'में द्वादशाक्षत त्वरित्ा-विद्या बतायो गयी है। यधा--
"ॐ हुँ खे च छे क्ष: स्त्री हुँ क्षे हों फट्।' आदिके तीन और अन्तके दो अक्षर छोड़कर जो शेष सात अक्षर अचते हैं, उन्होंसे दो-दो
अक्षर जोड़ते हुए न्यास करे। यधा--' ॐ> खे च इद्याय नमः। च छे शिरसे स्वाहा । छे शषः शिखायै वषट् । क्षः स्त्री कवचाय हुम्। स्वौ
ई नेत्रत्रयाय वौषट् । हूं क्षे अस्वाय फट् ।' इसो तरह करन्यास भी करे। तत्पधात्--'शिरसि--हाँ ॐ हीं नमः ।' ललाटे--हाँ हुं हीं गमः 4
कष्ठे द्वौ खे हीं नमः। इदि मौ च हीं नमः। नाभौ ही छे हीं नमः। मूलाधारे--हीं क्षः हीं नमः। ऊरुद्वये-हों स्वो हों नमः।
जानुद्वये - हौं हों नमः। जङ्कष्टये ह शे हौ तमः । पादडये--हों फट् हीं नमः" इस प्रकार *हीं' चीजे सम्पुटित अक्षरोंका व्यास
करके समस्त विद्या (द्वादशाक्षरयिक्मा) द्वारा व्यापकन्यास करें। तदनन्तर ध्यानादि सानसपूजनान्त कर्म करके स्वर्णादि पटपर कुद्ुम
आदिद्ारा पश्चिमादि द्वारोंसे युछ दो चतुरख रेखा बनाकर, उसके भोतर दो वृत्त बनाकर उसमें अष्टदलकमल अङ्कित कमे । फिर पूर्ववत्
आत्मपूजात्त कर्म करके भुवने धरौपीटकौ अर्चनाके बाद मूलवि्ासे मूर्तिनिर्माण कर आवाहनादि पुष्पोषचार अर्पित करे। कर्णिकामें
घड़ब़, गुरुपड्धित्रयकी पूजाके बाद आाहरकी वृत्तरयान्तरालगत दो बौधियोंमें देवीके अग्रवती दलके अग्रभागे एटकारौका, बाह्मावोथी--
देवीके अग्रभागमें हौ किंकराका, द्वारपार्धमें जया-विजयाका, आठ दलोमिं क्रमकः हुंकारो, खोचरो, चण्डा, छेदिनो, श्लेषिणो, स्त्रीकारी,
कारौ एवं क्षेमकारौको पूजा करे। फिर पूर्वजत् लोकपालादिकॉकी पूजा करके पूजा समाप्त को।