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तीन सौ सातवाँ अध्याय

त्रैलोक्यमोहन आदि मन्त्र

अग्निदेव कहते हैं-- मुने ! अब मैं धर्म, अर्थ,

काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थोंकी सिद्धिके

लिये “त्रैलोक्यमोहन' नामक मन्त्रका वर्णन

करूँगा॥ १॥

ॐ श्रीं हीं हूं ओम, ॐ नमः पुरुषोत्तम

पुरुषोत्तमप्रतिरूप लक्ष्मीनिवास सकलजगत्‌क्षोभण

सर्वस्त्ीहदयदारण त्रिभुवनमदोन्मादकर सुर-

मनुजसुन्दरीजनमनांसि तापय तापय दीपय दीपय

शोषय शोषय मारय मारय स्तम्भय स्तम्भय द्रावय

द्रावयाकर्चयाकर्षय परमसुभग सर्वसौभाग्यकर

कामप्रदामुकं ( शत्रुम्‌ ) हन हन चक्रेण गदया

खद्धेन सर्वबाणौर्भिन्द भिन्द पाशेन कट्ट कट्ट

ताडय ताडय त्वर त्वर किं तिष्ठसि

यावत्तावत्‌ सपीहितं मे सिद्धं भवति हुँ फट्‌,

नमः *॥२॥

ॐ पुरुषोत्तम त्रिभुवनमदोन्मादकर हुँ फट्‌

हृदयाय नमः । सुरमनुजसुन्दरीमनांसि तापय तापय

शिरसे स्वाहा । दीपय दीपव शोषय शोषय मारय

मारय स्तम्भय स्तम्भय द्रावय द्रावय कवचाय

हुम्‌। आकर्षयाकर्षय महाबल हुं फट्‌ नेत्रत्रयाय

वौषट्‌ । त्रिभुवनेश्वर सर्वजनमनांसि हन हन दारय

दारय ॐ मम वशमानयानय हं फट्‌ अस्त्राय

फट्‌ । त्रैलोक्यमोहन हषीकेशाप्रतिरूप सर्वस्त्री-

हदयाकर्षण आगच्छ-आगच्छ नमः। ( सर्वाड्रि )

व्यापकम्‌ ॥ ३॥

इस प्रकार मूलमन्तरयुक्त व्यापक न्यास बताया

गया । फिर पूजन तथा पचास हजारकी संख्यामें जप

करके अभिषेक करे। तत्पश्चात्‌ वैदिक विधिसे

स्थापित कुण्डाग्निम सौ बार आहुति दे। दही, घी,

खीर, सघृत चरु तथा औटाये हुए दूधकी पृथक्‌-

पृथक्‌ बारह - बारह आहुतियाँ मूलमन््रसे दे । फिर

अक्षत, तिल और यवकी एक हजार आहुतियाँ

देनेके पश्चात्‌ त्रिमधु, पुष्प, फल, दही तथा

समिधार्ओंकी सौ-सौ बार आहुतियाँ दे ॥ ४--६॥

तदनन्तर पूर्णाहुति-होम करके हुतावशिष्ट सघृत

चरुका प्राशन करे-कराये। फिर ब्राह्मण-भोजन

कराकर आचार्यको उचित दक्षिणा आदिसे संतुष्ट

करे। यों करनेसे मन्त्र सिद्ध होता है। स्नान करके

विधिवत्‌ आचमन करे और मौनभावसे यागमन्दिरमें

जाकर पद्मासनसे बैठे और तान्त्रिक विधिके

अनुसार शरीरका शोषण करे। पहले राक्षसों तथा

विध्नकारक भूतोंका दमन करनेके लिये सम्पूर्ण

दिशाओंमें सुदर्शनका न्यास करे। साथ ही यह

भावना करे कि वह सुदर्शन अस्त्र पाँच क्लेशोकि

बीजभूत, धूम्रवर्ण एवं प्रचण्ड अनिलरूप मेरे

सम्पूर्ण पापको, जो नाभिमें स्थित है, शरीरसे

अलग कर रहा है। फिर हृदयकमलमें स्थित रं"

बीजका स्मरण करके ऊपर, नीचे तथा अगल-

बगलमे फैली हुई अग्रिकी ज्वालाओंसे उस पाप-

पुञ्जको जलाकर भस्म कर दे। फिर मूर्धा

-_- ~~~

* इस भन्त्रका अर्थं यों है -' ॐ श्री हौ हं ओम्‌ सच्विदानन्दस्वरूप पुरुषोत्तम! पुरुषोतमप्रतिरूप! लक्ष्मीनिवास! आप अपने

सौन्दर्यते सम्पूर्ण जगत्‌को श्रुब्ध कर देनेमें समर्थ है । समस्त स्ियोकि इदयको दरण -- उन्मधित्त कर देनेवाले है । त्िभुवनको मदोन्मत्त कर

देनेकी शक्ति रखते हैं। देख़सुन्दरियों तथा मानवसुन्दरियोंके मनको (प्रीति-अग्रिमें) तपाइये, तपाइये; उनके रागको उद्दोप्त कीजिये, दीप्त

कौजिये; सोखिये, सोखिये; मारिये, मारिये; उनका स्तम्भत कौजिये; स्तम्भन कीजिये; द्रधित कोजिये, द्रबित कौजिये; आकर्प्ति कोजिये,

आकर्षित कौजिये। परम सौभाग्यनिधे ! सर्वसौभाग्यकारी प्रभो! आप सबकी मनोवाञ्छित कामना पूर्ण करनेवाले हैं। मेरे अमुकं शत्रुका

हनन कीजिये, हनन कौजिये। चक्रसे, गदासे और खङ्गसे; समस्त बाणोंसे बेधिये, बेधिये। पाशसें आवृत कीजिये, बाँध लोजिये। अङ्कुरे

कडित कीजिये, डित कोजिये । जल्दी कीजिये, जल्दी कीजिये । क्यों सुकते या ठहरते हैं? जबतक मेरा सारा मनोरथ पूर्ण न हो जाद,

तबतक यत्लशौल रहिये । हुं फट्‌, वमः #॥'

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