जय, हस्तिनापुरमें जयन्त, वर्धमानमें वाराह, | मागधवनमें वैकुण्ठ, विन्ध्यगिरिपर सर्वपापहारी,
काश्मीरमें चक्रपाणि, कुब्जाभ (या कुब्जास्र)-में
जनार्दन, मथुरामें केशवदेव, कुव्जाप्रक्ें हृषीकेश,
गड्जाद्वारमें जटाधर, शालग्रामे महायोग,
गोवर्धनगिरिपर हरि, पिण्डारकमें चतुर्बाहु, शङ्खोद्धारमे
शङ्खी, कुरुक्षेत्रमें वामन, यमुनामें त्रिविक्रम, शोणतीर्थमें
विश्वेश्वर, पूर्वसागरमें कपिल, महासागरमें विष्णु,
गङ्गासागर-सङ्गममें वनमाल, किष्किन्धा
रैवतकदेव, काशीतटमें महायोग, विरजामें रिपुंजय,
विशाखबूपमें अजित, नेपाले लोकभावन, द्वारकामें
कृष्ण, मन्दगचलमें मधुसूदन, लोकाकुलमें रिपुहर,
शालग्रामे हरिका स्मरण करे ॥ १--९॥
पुरुषवटमें पुरुष, विमलतीर्थमें जगत्प्रभु ,
सैन्धवारण्यमें अनन्त, दण्डकारण्यम शार्ङ्गधारी,
उत्पलावर्तकमें शौरि, नर्मदामें श्रीपति, रवतकगिरिपर
दामोदर, नन्दाम जलशायी, सिन्धुसागरमें गोपीश्वर,
महेनद्रतीर्थमे अच्युत, सद्याद्रिपर देवदेवे श्र,
औण्ड्में पुरुषोत्तम और हदयमे आत्मा विराजमान
हैं। ये अपने नामका जप करनेवाले साधकोंको भोग
तथा मोक्ष देनेवाले हैं, ऐसा जानो ॥ १०--१३॥
प्रत्येक बटवृक्षपर कुबेरका, प्रत्येक चौराहेपर
शिवका, प्रत्येक पर्वतपर रामका तथा सर्वत्र
मधुसूदनका स्मरण करे। धरती और आकाशमें
नरका, वसिष्ठतीर्थमें गरुडध्वजका तथा सर्वत्र
भगवान् वासुदेवका स्मरण करनेवाला पुरुष भोग
एवं मोक्षका भागी होता है। भगवान् विष्णुके
इन नामोंका जप करके मनुष्य सब कुछ पा
सकता है। उपर्युक्त क्षेत्रमें जो जप, श्राद्ध, दान
और तर्पण किया जाता है, वह सब कोटिगुना
हो जाता है। जिसकी वहाँ मृत्यु होती है, वह
ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। जो इस प्रसंगको पढ़ेगा
अथवा सुनेगा, वह शुद्ध होकर स्वर्ग
(वैकुण्ठधाम)-को प्राप्त होगा*॥ १४--१७॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें “ विष्णुके प्रचयत नामविषयक”
तीन सौ प्राँचवाँ अध्याय पदा हुआ॥ २०५ ॥
॥
* अग्रिस्याच ~
जपन् वै पड्धपञ्ाशद् चिष्णुनामानि यो नरः । मन्तरजप्यादिफलभाक् तीरथेष्र्वादि चाक्षयम् ॥
पुष्करे पुण्डरौकाश्च गयायां च गदाधरम् । गावं चिच्रकूरे तु प्रभासे रैत्यसूदनम्॥
जयन्त्यां
विष्णुं शज्ञासागरसंगमे । वनमालं च किष्किन््यं देवं रैवतकं विदुः ४
काश्तीतरे महायोगं विरजायां रिपंजयम् । विशाखयूपे हयक नेपाले लोकभावनम् ब
द्वारकायां विद्धि कृष्णं मन्दे मधुसूदनम् | लोकाकुले रिपुहरं शलग्रामे हरिं स्मत् ४
पुरुषं पूरुषषटे विमले च जगत्प्रभुम् । अनन्तं सैन्धवारण्ये दण्डके शर््गधारिणम् ॥
उत्पलावर्तके शौरिं नर्मदायां श्रियः पतिम् । दामोदरं रैवतके नन्दायां जलशायिनम् १
गोपीधवरं च स््ष्यन्धौ माहेन्रे चाच्युतं विदुः । सद्याद्रौ देवदेवेशं वैकुण्ठं मागधे चने
सर्वपापहरं विन्ध्ये ओष्डै तु पुरुषोत्तमम् | आत्मानं इदये चिद्धि जपं भुक्तिमुक्तिदम् ॥
(अग्निषु ३०५। १-- १७)