* अध्याय ३०३ ०
"क्रुद्धोल्काय स्वाहा हृदयाय नम: । महोल्काय
स्वाहा शिरसे स्वाहा । वीरोल्काय स्वाहा शिखायै
बषट् । द्युल्काय स्वाहा कवचाय हुम्। सहस्नोल्काय
स्वाहा अस्त्राय फट्।"-इन मन्त्रोको क्रमशः
पढ़ते हुए हदय, सिर, शिखा, दोनों भुजा तथा
सम्पूर्ण दिग्भागमे न्यास करे॥३६॥
कनिष्ठासे लेकर कनिष्ठातक आठ अँगुलियोंके
तीनों पर्वोर्में अशक्षर मन्त्रके पृथक्ू-पृथक् आठ
अशक्षरोको 'प्रणव' तथा 'नमः ' से सम्पुटित करके
बोलते हुए भु के अग्रभागसे उनका क्रमशः
न्यास करे।' मध्यमासे युक्त अम्जुप्ठमें
करतलमें तथा पुनः अज्जुष्ठमें प्रणबका न्यास
"उत्तार ' कहलाता है। अतः पूर्वोक्त न्यासके पश्चात्
'बीजोत्तारन्यास' करे। अष्टाक्षर मन्त्रके वर्णोका
रंग यों समझे --आदिके पाँच अक्षर क्रमशः रक्त,
गौर, धूम्र, हरित और सुवर्णमय कान्तिवाले हैं
तथा अन्तिम तीन वर्ण श्वेत हैं। इस रूपमें इन
वर्णोकी भावना करके इनका क्रमश: न्यास करना
चाहिये। न्यासके स्थान हैं-हृदय, मुख, नेत्र,
मूर्धा, चरण, तालु, गुद्दा तथा हस्त आदि॥ ४--७॥
हाथोंमें और अङ्गिं बीजन्यास करके फिर
अङ्गन्यास करे।' जैसे अपने शरीरमें न्यास किया
जाता है, उसी तरह देवविग्रहमें भी करना
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जाता है। देवविग्रहके हृदयादि अद्गोमे विन्यस्त
वर्णोका गन्ध-पुष्पोंद्रारा पूजन करे। देवपीठपर
धर्म आदि, अग्नि आदि तथा अधर्म आदिका भी
यथास्थान न्यास करे। फिर उसपर कमलका भी
न्यास करना चाहिये॥ ८-९॥
पीठपर ही कमलके दल, केसर, किज्जल्कका
व्यापक सूर्यमण्डल, चन्द्रमण्डल तथा अग्रिमण्डल--
इन तीन मण्डलोंका पृथक्-पृथक् क्रमशः न्यास
करे। वहाँ सत्त्व आदि तीन गुणोंका तथा केसरोंमें
स्थित विमला आदि शक्तियोंका भी चिन्तन करे।
उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-विमला,
उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या तथा
ईशाना। ये आठ शक्तियाँ आठ दिशाओंमें स्थित
हैं और नवीं अनुग्रहा शक्ति मध्यमे विराजमान है ।
योगपीठकी अर्चना करके उसपर श्रीहरिका आवाहन
और पूजन करे ॥ १०-१२॥
पाच्च, अर्घ्य, आचमनीय, पीताम्बर तथा
आभूषण- ये पाँच उपचार हैँ । इन सबका मूल
(अष्टक्षर) मन्त्रसे समर्पण किया जाता है । पीठके
पूर्व आदि चार दिशाओंमें वासुदेव आदि चार
मूर्तियोंका तथा अग्रि आदि कोणोंमें क्रमशः श्री,
सरस्वती, रति और शान्तिका पूजन करे॥ १३-१४॥
इसी प्रकार दिशाओंमें शङ्खं, चक्र, गदा ओर
चाहिये। किंतु देवशरीर्मे करन्यास नहीं किया | पद्यका तथा विदिशाओं (कोणो ) -मँ मुसल,
१, एव मनतरोकि अन्ते "स्वाहा" पद जोड़नेके विषयमे ' चैलोक्यमोहन-तन्त्'का निम्नाङ्भित वचन प्रमाण हैं--
क्रद्धोल्कादिषदैर्वद्धिजायानौर्जातिसंयुतैः ।' ' तन्त्रप्रकाश ' वे भी ऐसा हौ कहा गया है--
एषां विभक्तियुक्तानां भवेदन्तेऽप्रिवल्लभा।
२. 'नारायणोयतन्त्र में भो ऐसा हौ कहा है-
मः लीन पिपर्वसु। ज्वेक्षाग्रेण नमस्ताररुद्धातशक्षणन् न्यसेत् ॥ इति ॥
३. " शारदातिलक ' पञदश पटलके पाँचकी स्याख्याके अनुसार हाथोंमें सृष्टि, स्थिति एवं संहारके क्रमसे न्यास करना चाहिये ।
दाहिनों तर्जनोसे लेकर वाम तर्जनौतक मन्त्रके आठ अक्षरोंका न्यास ' सृषटन्फस ' है। दोनों तर्जनतीसे आरम्भ कर दोतों कविक्तापर्यम्त दो
आवृत्तिमें इन आठ अक्षरोंका न्यास ' स्थितिन्यास ' है। दाहिनी कनिश्लासे लेकर याम कनिषटापर्यन्त न्यास्र 'संहारन्यास' दै ।' क द्ोल्काय '
इत्यादिसे मूलमें जो हृदयादि न्यास कहा है, वही ' अङ्ग यास ' है । इस प्रकार कगाङ्गन्यास करके पुनः अङ्गन्यासकौ विधि ' शारदातिलक ' की
व्याख्यामें स्पष्ट की गवौ है । यधा--' षडञ्गन्यास ' की विधिसे छः अक्षरोंका अज्जॉमें क्रमश: व्यास करके शेष दो अक्षका उदर और पृष्ठमें
न्यास करना चाहिये । प्रयोग इस प्रकार है -' 3ॐ> इदयाय तम: । न॑ शिरसे स्वाहा । मों शिखायै वषट् । नां कवचाय हुम् । रं नेत्राभ्यां यौषट् । यं
अस्त्राय फट् । णां उदराय नमः । य॑ पृष्ठाय नम: ।' इति । ईशानशिव गुरुदेवका वचन भौ ऐसा ही है ।
अस्य स्याद्धदवं तारः शिरोतीर्णः शिखा च मो । तावर्ण: कवचं शस्त्रं रावर्णो जयनं परः ४
उदरं पृषठमन्त्यौ च वर्णौ हि वमसा युतौ #