कहता हं ॥ १॥ और दो श्र कहे गये हैं*। ये चार वर्णोकि नाग
शेष, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापदय, | क्रमशः दस सौ, आठ सौ, पाँच सौ और तीन
शंखपाल एवं कुलिक--ये आठ नार्गोमिं श्रेष्ठ हैं।। सौ फरणोसि युक्त है । इनके वंशज पाँच सौ नाग
इन नागॉमेंसे दो नाग ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वैश्य | है । उनसे असंख्य ना्गोकी उत्पत्ति हुई है।
सर्पोंका वर्गीकरण
भीष दिव्य
[7] आदि दिष्य दृष्टि-निश्वासवाले देवरूप और पूजनीय)
सविष
न + निर्विष (१२)
दर्वीकर (२६) मण्डली (२२) राजिमान् (१०) कैकरज्ञ(७,३)-१०
(फणवाले) (अल्प फणवाले) (फणविहोन) दर्वीकर, मण्डली
शीघ्रगामी मन्दगामी, स्थूल विजि५ रगकौ रेखाओँसे चित्रित तथा राजिसान् सर्पोंकी
चक्र, हल, छत्र. स्वस्तिक, . मण्डलाकार चकत्ते श्लैष्मप्रकोपक, रात्रिके अन्तिम संकर संतानें होती हैं।
अड्कुशधारी, कतप्रकोफ्क, शरीरपर होते हैं। प्रहरमे विचरण करनेवाले, मध्यम द्विदोष प्रकोपक, चित्र-
दिवाचारी, तल्णाश्रस्थामें सातक चमकते सूर्यके समाने आयुपे चतक विचित्र स्वभाव व
तेजयुक्त, पित्तप्रकोपक, आकृतिके, विविध प्रकारके
पूर्वशत़िमें विचरनेचाले, प्रभावकारों
जुद्धावस्थामें घातक
"सुरत संहिता '. पू० तन्त्र, कल्पस्यान, अध्याय ४ श्लोक २५ से २८ तक कुछ विशेष चिह्न और रंगोंके आधारपर सपो
ब्राह्मणादि जातिर्योकी परिकल्पना कौ गयी है। जो सर्प घोतों और चाँदीके समान सफेद, कपिल यर्णके सुनहरे रंगके तथा सुगन्धयुक्त होते
हैं, वे जातिसे ब्राह्मण माने गये हैं। जो जिर वर्ण (चिकने), अत्यन्त क्रोधी, सूर्प और चन्द्रमाके समान आकृतिके या छत्र अधवा
कमलके समान चिह्न धारण करनेवाले होते हैं, उन्हें क्षत्रिय जतिको सर्प मानता चाहिये। जो काले और वज़़के समान रंगवाले हैं अथवा
जो कान्तिसे लाल, धूमिल एवं कबूतरके-से दिखायी देते हैं, वे सर्प वैश्य माने गये हैं। जिनका रंग भैसों और चौतोंके समान हो, जो
कठोर त्वचावाले हों, वे भाँति-भाँतिके चिचित्र रंगवाले सर्प शुद्र जातिके होते हैं।
तन््रसार-संग्रह 'की ' विषवारायणीय ' टीकामें ब्राह्मण आदि वर्णवाले दो-दो काणक क्रमके विषयमें एक श्लोक उपलब्ध होता है--
आद्नन्तौ च तदाद्मन्ती तदाच्चन्तौ च मध्यगी।
"आदि और अन्तके नाण ब्राह्मण है । उसके बाद पुनः आदि-अन्तके नाप क्षत्रिय हैं, तत्पश्चात् पुनः आदि-अन्तके नाग वैश्य हैं
और मध्यवती दो काग शुद्र हैं।'
+*ज्ञारदातिलक' १०।७ में इन नागॉको त्वरिता देवीका आभूषण बताया गया है । उक्त श्लोककी टौकामें उद्धृत ' नारायणौ तन्त्र के
श्लोकॉमें इव नागोका ध्यान इस प्रकार बताया गया है--
अनन्तकुलिकौ चिपरी बद्धिवणौनुदाकतौ । प्रत्येकं दु सहस्रेण फणानां समलंकृती ॥
कामुकिः शब्बुपालक्ष॒ धत्रियौ पोतवर्णकौ । प्रत्येकं तु फणासप्तशतम्रंख्याजिराजितौ ॥
तक्षकश्च महाप््ो वैश्यावेतावहौ स्मृतौ । नोलवर्णी फणापश्षशती तुम्नोतमाज़कौ॥
पद्यकर्कोटकी शुहौ 'फणाजिशतकी सिती।