जोड़कर बोलना चाहिये। यथा "हं हृदयाय | तिलॉकी आहुति दे। लिपियॉंकी अधिष्ठात्री
नमः। हीं शिरसे स्वाहा। । 9 वषट् । | देवी वागीश्वरी अपने चार हाथोंमें अक्षमाला
हैं कवचाय हुम्। हों यौषद्। | कलश, पुस्तक और कमल धारण करती हैं।
हः अस्तराय फट्।' यह "षडङ्गन्यास ' कहा गया | कवित्व आदिकी शक्ति प्रदान करती हैं। इसलिये
है। पञ्चा्गन्यास्े नेत्रको छोड़ दिया जाता है । | जपकर्मके आदिमे सिद्धिके लिये उनका
निरङ्ग-मन्त्रका उसके स्वरूपसे ही अङ्गन्यास | न्यास करे। इससे अकवि भी निर्मल कवि
करके क्रमशः वागीश्वर देवी (हीं)-का| होता है। मातृका-न्याससे सभी मन्त्र सिद्ध होते
एक लाख जप करे तथा यथोक्त (दशांश) | हैं॥ ४७--५१॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें “मन्त्र- परिभाकाका वर्णन” नायक
दो सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २९३ ॥
को >>
दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय
नाग-लक्षण *
अग्निदेव कहते है -- वसिष्ठ ! अब मैं नागोंकी | विविध भेद, दंशके स्थान, मर्मस्थल, सूतक और
उत्पत्ति, सर्पदंशमें अशुभ नक्षत्र आदि, सर्पदंशके | सर्पदष्ट मनुष्यकी चेष्टा-इन सात लक्षणोंको
* अग्निपुराणे जिस धन्वन्तरि -सुशरुत- संवाददवारा उग्वरवेदका प्रतिपादन किया गया है, यही विस्तारपूर्वक ' सुश्रुत ' ग्रन्धे वषित है ।
सपे सम्बन्धमें " सुत्त ' ग्रन्थमें (पू० तन्त्र, कल्यस्थान्, अध्याय ४ में) जो कुछ कहा गवा है, उसका सारांश इस प्रकार है--सर्प दो
प्रकारके होते हैं--' दिव्य” और ' भौम '। दिष्य सर्प वासुकि और तेक्षक आदि है । वे इस पृथ्वीका बोझ उठानेषाले हैं; प्रज्यलित अग्निके
समाने तेजस्वी होते हैं। वे कुपित हो जायें तो फुफकार और दृष्टिमात्रसे सम्पूर्ण जगत्कों दग्ध कर सकते हैं। वे सदा नमस्कारके ही योग्य
हैं। उनके डसनेकौ कोई दबा नहीं है। चिकित्सासे उनका कोई प्रयोजन वही है।
परैतु जो भूमिपर उत्पन्त होनेवाले सर्प हैं, जिनकी दाढोंमें विष होता है तथा जो मनुष्योंकों काटते है, उनकौ संख्या अस्सी है। उन
सबके पाँच भेद हैं-दर्यॉकर, मण्डली, राजिमान्, निर्विष आर वैकरज्ज। राजिमानूको ही अग्रिपुराणमें 'राजिल' कहां गया है। इनमें
'दर्वीकर' छब्बीस, ' मण्डली ' बाईस, ' राजिमान्" ( खा राजिल) दस, "निर्विष ' बारह तथा ' वैकरञ् ' तीव प्रकारके होते हैं । वैकरज्जोंद्रारा
मण्डली तथा राजिलके संयोगसे उत्पन्त्र चित्रित सर्प सात प्रकारके माने गये है । मण्डलोके संयोगे उत्पन्न चार और राजिलके संयोगसे
उत्पन्न तीन । इस तरह इनके अस्सी प्रकार हुए ।
दर्वीकर सर्प चक्र, हल, छत्र, स्वस्तिक और अङ्कुशका चिह धारण करनेवाले, फणयुक्त तथा शीघ्रगामो होते है । मण्डलो सर्प
विविध मण्डलॉसे चित्रित, मोटे तथा मन्दगामी हुआ करते हैं। वे अग्नि तथा सूर्यके तुल्य तेजस्य जान पड़ते हैं। राजिमान् अधवा राजिल
सर्प चिकने होते हैं। वे तिरछी, ऊर््यंगामिनी एवं बहुर॑गी रेखाओंद्रास चित्रित-से जाव पड़ते हैं। चरकने भी इन सर्पोंके विषयमें ऐसा ही,
किंतु संक्षिप्त विवरण दिया है-
दर्वीकरः फणौ नेयो मण्डली मण्डलाफण: । विन्दुलेखो विचित्राज़ः पतङ्गः स्यातु राणिग्न् ॥
फणवाले (दर्कोकर) सर्प वायुको प्रकुपित करते हैं। मण्डली सर्पोंके दंशनसे पित्तका प्रकोप बढ़ता है तथा राजिमान् सर्प कफ-
प्रकोपको बढ़ातेवाले होते हैं।' (सुश्रुत, उत्तरत्र, कल्यस्थान ४। २९)
*राजिमान् सर्प रातके पिछले पहरमें, मण्डली सर्च रातके शेष तीन पहरोपे और दर्वीकर सर्प दिनसें चरते और विचरते हैं ।'
(सुश्रुत, उत्तरतन्त्र, कल्पस्थान ४।३१)
दर्वीकर सर्प तरुणावस्थामें, मण्डली वृद्धावस्थामें और राजिमान् सर्प मध्यवयमें उप्र विषवाले होकर लोगॉकी मृत्युके कारण बनते
हैं। ( सूक्त ४।३२) मण्डली सर्पोंको गोत्रस भी कहते हैं।
सुश्रुत - संहित ' कौ ' आयुर्वेद-तत््व-संदीपिका' व्याख्यामें सर्पोका वर्शीकरण इस प्रकार दिया गया है--